Watch

मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

कहने में हिचक तो रहा हूँ पर .......

आज 31 दिसम्बर का दिन है अंग्रेजी परम्परा के अनुसार आज साल का आखिरी दिन है, क्योंकि जिंदगी पिछले 200-300 बरस से अंग्रेजियत में गुजर रही है। हर मुल्क के हर आदमी को नए जमाने की हवा अपने आगोश में ले रही है। अलग अलग तहजीबों, अलग अलग मुल्कों के अपने अपने चलन जो जीने के थे वो रफ़्ता रफ़्ता कम होते चले गए या नई पीढ़ी ने पुरानी पीढ़ी की परम्पराओं की चादरों को पुराने संदूकों में तह करके रख दिया और नया खोजने की तलाश में अंग्रेजियत का जामा ओढ़ने की होड़ में इसे हर तरह से मुकम्मल समझ लिया। खैर, अब इसी की बात की जाये इसी की लाइन पर या कदमों पर कदम-ताल की जाये तो मुद्दआ ये है, इस साल के आक्सीजन सलेंडर में कुछ ही घण्टों का आक्सीजन बचा है, जिसमें हर शख्स हर एक उस ग़म को भुला देना चाहता है जो दिन रात उसे घेरे रहता है, कहीं न कहीं किसी न किसी दे हल्की सी मुस्कान भी मिली हो, ऐसे छोटे छोटे हसीन लम्हों का जहन में पिरोकर ख़ुशी का लाव-लश्कर अपने दिल में लिए सभी इस साल को अलविदा कहना चाहते हैं। नयी उम्मीदों और नए ख़्वाबों की ताबीर के लिए नए साल का सुनहरा चेहरा देखने को हर कोई उसी भीड़ का हिस्सा है जो आज से ज्यादा या यूँ कहें इस साल से ज्यादा पा लेना चाहते हैं।
 जिंदगी अपनी करवटों का खेल खेलती रहती है आदमी की सोच ऊपर वाले के मुकाबले कम है, ऊपर बैठ कर वो जिस तरह के खेल खेलता है उसका इल्म इंसान को न आदम के जमाने में था न आज के जमाने में है, पर जमाना प्रोफेशनल और लिखा-पढ़ा हुए जा रहा है। इंसान को जो तरबियत मिल रही है वो ऐसी है की तुम सब कुछ कर सकते हो।  किसी के सहारे या जरिया होने का या किसी का शुक्रिया या किसी साथ लेने का या निभाने का सबक आज के वक्त की यूनिवर्सिटीज में नहीं सिखाया जाता। सिखाया जाता है  वो ये है जो कुछ है सो तुम्हारे ही हाथ में है। तुम तुम कर कर के आज की पीढ़ी को इतना खुदगर्ज़ कर दिया है की बस चन्द और वक्त के बाद इंसान इंसान को देखना, पसन्द करना छोड़ देगा, तो ये हाल हैं इस जमाने के।
अच्छा इस साल और नए साल के इस मुबारक मौके के बाद क्या होगा, लोग ये जानते हैं जिंदगी में जो भी हाजिर-ए-हालात हैं वो बदलने वाले नहीं हैं।

पर फिर भी भीड़ का हिस्सा बनना है दिल के बहलाने के लिए कोई मुद्दआ बेवजह ही सही होना चाहिए। मैं कुछ कुछ इसी भीड़ में हिस्सा हूँ क्योंकि इसी दौर में हयात मैंने भी पाई है, पर कुछ बातें जो बुजुर्गों के कदमों में बैठकर सीखीं है उन्हें इशारे इशारे में लिख रहा हूँ। यूँ नहीं है के सभी कुछ बुरा है इस दौर का पर ये दौर हमसे हमारी जड़ों के जुड़ने से दूर करता है। नए दौर और पुराने दौर में कोई जुड़ाव की बात हो कोई ऐसा केमिकल फार्मूला हो जो इस केमिकल लोचे को खत्म कर सके, इसी उम्मीद के साथ अपनी कलम को इस मकाम और आराम करने की खातिर रोकता हूँ।

कहने में हिचक तो रहा हूँ पर .......आप सभी को नए साल की मुबारकबाद पहले ही से....
~पवन राज सिंह

महबूब का तमाशा

अब वो ख्वाबों में भी अक्सर नहीं आता जो,
हरदम जहन के पैरों में एक बेड़ी सा बन्धा रहता था। जब मैं उसे तवज्जो नहीं भी देता
 तो वो कदमों में अटक कर मेरे जहन को मुँह
के बल गिरा देता था और अपने वजूद को मेरे
ज़हन में याद कराता रहता। वो महबूब जो इस दिल को तोड़ गया, वो ही जहन में इस तरह बस जाता है। घूमता रहता है दिन के हर पल में और रात के ख्वाबों की दुनिया में, इस
तरह की इक तरफ़ा मुहब्बतें बहुत दिनों तक
सताती हैं। इक अच्छे नेक दिल इंसान को
मुहब्बत का छोटासा प्यार भरा सफर, इक लम्हे
के भी ख्वाब के छोटे से हिस्से जैसा नसीब
होता है। उसको खेंच कर जब जहन लम्बा
दरिया या सागर सा कर दे और फिर इस पहाड़
को सर मारने से भी ये गम का नारियल न फूटे, तो ऐसा जानो कि वो इक मुहब्बत का धोका तुम्हारे अंदर इक आतिश पैदा करने वाला है।
      कुछ सालों ये याद, ये तड़प जहन को परेशां रखती है। फिर जब उस इन्तजार से जब जी उक्ता जाता है।
तो वो इंसान के कद और तमीज के बदलने
का ऐसा वक्त होता है जब सोना भी कुंदन सा
निखर जाता है। आपको ये महसूस हुआ तो
समझो इस रास्ते के सफर की हद में इक
कलन्दर या दार्शनिक है और तुम वो शख़्स
बनने की शुरुआत पर हो।
अब वो ख्वाबों में भी नहीं आता  "महबूब का तमाशा"

~पवन राज सिंह


मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

नग्मा ए ख़ुसरो Part...1


बहुभाषाविद् अमीर खुसरो ने फ़ारसी, अरबी, तुर्की व हिंदी में अनेक रचनाएं तैयार की। फारसी साहित्य में इन्हें आदर-मान की दृष्टि से देखा जाता है।
मिर्जा गालिब खुसरो को मान देते हुए कहते हैं :
"गालिब मेरे कलाम में क्योंकर न मज़ा हो।
पीता हूं धो के खुसरुए शीरीं सुखन के पांव॥"

खुसरो ने कई लाख कलाम कहे। उनकी साहित्यिक प्रतिभा व उदात्त कल्पनाशक्ति अतुलनीय है।
खसरो के समकालीन इतिहासकार बरनी ने भी कहा है कि खुसरो की सभी रचनाएं रखने के लिए एक पुस्तकालय की आवश्यकता होगी।
" फ़िरदौसी, सादी, अनवरी , अर्फी, नज़ीरी आदि अक़लीमे सुखन के बादशाह हैं, किंतु उनकी सीमा एक अकलाम से आगे नहीं बढ़ती।
फिरदौसी मसनवी से आगे नहीं बढ़ सकता, सादी क़सीदे को हाथ नहीं लगा सकते। अनवरी मसनवी व ग़ज़ल को नहीं छू सकता। हाफिज़, उफ़्फी, नजीरी गज़ल के दायरे से बाहर नहीं निकल सकते, परंतु अमीर खुसरो की
साहित्यिक सत्ता में ग़ज़ल, रुबाई, क़सीदा व मसनवीं सब कुछ दाख़िल है व काव्यकला की छोटी-मोटी विधाएं अर्थात् तज़मीन, मुस्तज़ाद सनाय व हादाय की तो गिनती ही नहीं है।
शोधकर्ताओं ने भारत, तुर्की, मिस्र का यूरोप के पुस्तकालयों से खुसरो की
निम्नलिखित रचनाएं खोज निकाली हैं।
1. तुहफ तुस्सिग्र
2. वस्तुल हयात
3. गुर्रतल कमाल
4. बक़ीय नक़ीय
5. निहायतुल कमाल
6. किरानुस्सादैन
7. मुफ़ताहुल फुतूह
8. ख़िज़र ख़ां व देवल रानी
9. नूह सिपहर
10. तुगलक़नामा
11.मतला-उल-अनवार
12. शीरीं व खुसरो
13. मजनू लैला
14. हश्ते-बिहिश्त
15. आइन-ए-सिकंदरी
16. मजमूआ असन वयात
17. मजमूआ रुबाइयत
18. कुल्लियात
19. कसीदा अमीर खुसरो
20. मुश्तमिल वर दास्तां शाहनामा
21. एजाज़े खुसरवी
22. इंशा-ए-खुसरवी
23. रफ्फ़ाइनुल फतूह
24. निसावे बदीउल अजायब व निसाबे मसल्लस
25. अफ-ज़लुल फ़वाइद
26. बाज़नामा
27. क़िस्सा चहार दरवेश
28. मर्रातुस्स फ़ा
29. शहर आशोब
30. ताजुल फ़तह
31. तारीखे दिल्ली
32. मानकिबे हिंद
33. हालात कन्हैया व कृष्न
34. मक्तूबाते अमीर खुसरो
35. जवाहरूल बहर
36. मकाला तारीखुल खुलफ़ा
37. राहतुल मुहिबदीन
33. रिसाला अब्यात बहस
39. शगूफे बयान
40. तराना हिंदी
41. अस्पनामा
42. मसनवी शिकायतनामा मोमिनपुर
43. मनाजाते खुसरो
44. मसनवी शिकायतनामा मोमिनपुर पटियाली
45. वाहरल अवर
(अमीर खुसरो व उनका हिंदी साहित्य
भालानाथ तिवारी से साभार)
Part ....1
Compiled By :Pawan Raj Singh
Courtesy:अमीर ख़ुसरो व् उनकी शायरी

माँ और उसकी पेंशन का दिन


हर परिवार की अपनी इक कहानी या जीवन के क्षण होते हैं, जिन्हें पारिवारिक जन ही महसूस कर सकते हैं,
बाबू जी के चले जाने के बाद माँ को फेमिली पेंशन मिलने लगी, माँ भी उम्र दराज हो चली हैं, पर उनको महीने में इक रोज बैंक जाने का बड़ा चाव रहता है। यूँ तो माँ महीने भर अपने नित्य काम-काज में ही व्यस्त रहती हैं मुझे भी कुछ नहीं कहती, सामान्य बातें जो माँ बेटों में रहती हैं वही होती हैं हम दोनों के बीच। किन्तु पेंशन वाले दिन से पहले ही वह उत्साहित हो कह उठती है "पासबुक छपाने चलेंगे"। उसे पेंशन से ज्यादा उस मशीन से मिलना अच्छा लगता है। जो बिना किसी आदमी के ख़ुद पासबुक छापती है।
आजकल बैंकों में पासबुक्स में एंट्री करने की मशीनें लगी हैं, जो पास बुक के बार कोड (barcode) को रीड करके ग्राहक और उसके अकाउंट को पहचानती हैं, फिर लास्ट प्रिंटेड पेज को देखकर ओटीमेटिक्ली पासबुक की आगे की एंट्रियों को छाप देती है। ऐसी मशीनें और उनकी कार्यप्रणाली देखकर माँ अचंभित और उत्साह से कह उठती है, "क्या नया जमाना आ गया आदमी की कोई आवश्यकता ही नहीं किसी कार्य को मशीनें स्वतः ही सम्पन्न कर देती हैं।"
मैं माँ को अपने साथ बैंक ले जाता हूँ जहाँ स्लिप भरने से पेंशन लेने तक उसकी आँखें हर होने वाली घटना को देखती और सीखती रहती है। उन आँखों में एक नवीन शिष्य जैसी उम्मीदें होती है कि अगली बार जब मैं यहां आऊँ तो यह कार्य जो मैंने सीख लिया है कैसे होता है, तो उसे स्वतः कर पाऊं। किन्तु हर बार वह उसी नवीनता में चली जाती है, पुराने सारे अनुभवों को भुला देती है। कुछ ख़ास बातें ही उसे याद रहती हैं। जैसे उस क्लर्क से नमस्ते करना जब पेंशन मिल जाती है और उस मैनेजर से भी जब वह पेंशन स्लिप को अप्रूव कर देता है। माँ इतना समझती है की किसी का शुक्रिया करने से वह भविष्य में याद रखता है सम्मान के बदले में अगली बार अधिक सम्मान या पहचान प्राप्त होती है। पैसा या धन की वास्तविक जीवन में इतनी महत्ता नहीं है जितना की जान पहचान की है। यह सदियों से चली आ रही भारतीय ग्रामीण परम्परा या पुरातन परम्परा की पहचान है जिसे माँ बताती रहती है।
पुरानी पीढ़ी और नई तकनीकों में जो आपसी मिलन है उसे पाठकों तक पहुँचाकर मुझे भी एक नया अनुभव एक उस पुल के जैसे महसूस होता है जिस पर चलकर इधर के लोग उधर उधर के लोग इधर आकर देखते हैं की नवीनता क्या है और पुरातन पथ कैसा है।
आप सभी का शुक्रिया
~पवन राज सिंह

रविवार, 15 दिसंबर 2019

इमाम साहब और उनका पान

जय सिंह के गले की घण्टी बन गया है, इमाम साहब का पान हर दो घण्टे या एक घण्टे में एक नया आशिक़ आ जाता है और ईमाम साहब के नाम से पान खरीद कर ले जाता है । मद्रासी पत्ते पर कत्थे और चुने के ऊपर देसी जर्दा और पिपरमेंट बस, छालिया(सुपारी) अलग से दूसरी पुड़िया में पैक होती है, अच्छा इस पान को भी यूँहीं नहीं खाया जाता इमाम साहब इस पान को अपने पास में जमीन पर खोलकर रख देते हैं। पान पर कत्था, चुना जब तक सूख नहीं जाता पान में पिपरमेंट और जर्दे का स्वाद रचता नहीं है। रही बात जयसिंह की तो जय सिंह खुद भी इक जमाने से इमाम साहब का आशिक है, मथुरा बृंदावन की धरती से 40/50 बरस पहले आकर शहर में पान का ठिया लगाया था, उस जमाने से ही इमाम साहब का आना जाना है। इमाम साहब खुद ख़ानदानी नवाबजादे हैं,और वक्त की आँधियों ने नवाबी भी छीन ली फिर अमीरी छिनी फिर रही सही आम सी जिंदगी भी, बरसों से बस्ती फकीरान में रहते रहते खुद भी फ़कीर हो गए हैं, खुद इमाम साहब का कहा है "मियाँ पैसे वाले होते तो इतनी मुहब्बत न मिलती, ये मुहब्बत तो सिर्फ गरीब बस्तियों में ही है। फ़कीर के माने दो होते हैं इक फ़कीर किसी गरीब आदमी को कहा जाता है, और इक वो होता है जो अपने क़ासे रखता तो सारी दौलत है पर दुनिया को लगता है ये मांगने वाला है। वो होती है असली फ़कीरी।"   ये बात बताते बताते इमाम साहब कोई शेर यूँ पढ़ देते हैं;

"गोया यूँ तो ख़ानदानी रईस थे
मगर जिंदगी फकीरों में गुजारी है"

तो जो उनकी ख़ानदानी रईसी है उसने पान का इक अदद शोक छुटने न दिया जिस जमाने जवां थे, उस जमाने में चौराहे पर जाकर पान के ठियों पर खड़े हो जाते, वालिदा ने क़ुरआन हाफ़िज बना दिया था, अपने बेटे को पर उर्दू और शायरी का शोक नया नया चढ़ा था जहन पर,  जिसकी हर रोज की खुराक चौराहे पर पान के ठियों पर ही मिलती, अब इस सोहबत ने शायरों के साथ रहने से पान का शौकीन भी बना दिया। शायरों को पान मुंह में दबाकर शेर कहने की जो आदत होती है,

हजारों मंज़िलें होंगी हजारों कारवां होंगे
बहारें हमको ढूंढेंगी न जाने हम कहाँ होंगे

क्या दमे-वस्ल कोई तेरा मेरी जान भरे
सेकड़ों मर गये इस राह में अरमान भरे

मुद्दतों गरचे रही पर्दे से बाहर लैला
बस सिवा केस के उसका कोई आशिक़ न हुआ

तू मगर वो है के जब तूने दिखाया जल्वा
तेरे दीवानों से कल को हो बयाबान भरे


किसी रहीस की महफ़िल का जिक्र क्या है 'अमीर'
ख़ुदा के घर भी न जाएंगे बिन बुलाए हुए

ये आदत इनको(इमाम साहब को) भी लगी जो अब भी जारी है, आपको जो भी शेर गज़ल कोई पढ़कर सूना भी देता एक बार भी तो याद हो जाती गज़ल हो या शेर हो तो याद हो जाता शेर भी। खैर वो जमाने गुजरे वक्त हुआ। अब बस मस्जिद से हुजरा और हुजरे से मस्जिद तक दौड़ होती है या कभी कभी तो वजू खाने से मस्जिद और मस्जिद से वजू खाने ही का सफर होता है, पर कहते हैं "मियाँ तुम जैसे लोग न हों या कोई आशिक न हो तो पान की खातिर 15 किलोमीटर तो जा सकता हूँ तो ये जयसिंह की दूकान कोनसी दूर है।"

अब ये किस्सा तमाम नहीं हुआ है, आज मेरे पढ़ने वालों को सिर्फ इस केरेक्टर इमाम साहब से मिलवाना था जो आज इस छोटी सी दास्ताँ-गोई में आप लोगों से तार्रुफ़ करवाने की मेरी कोशिश है।

~पवन राज सिंह
15-दिसम्बर

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

कलामे-अमीर ख़ुसरो :---काफ़िरे-इश्क़म मुसलमानी मरा दर कार नेस्त

काफ़िरे-इश्क़म मुसलमानी मरा दर कार नेस्त,
हर रगे मन तार गश्ता हाजते जुन्नार नेस्त

अज सरे बालीने मन बर ख़ेज़ ए बादाँ तबीब,
दर्द मन्द इश्क़ का दारो -- बख़ैर दीदार नेस्त

मा व इश्क़ यार अगर किब्ला गर दर बुतकदा,
आशिकान दोस्त रा बकुफ़्रो -- इमां कार नेस्त

ख़ल्क़ भी गोयद के ख़ुसरो बुत परस्ती भी कुनद,
आरे-आरे भी कुनम बा ख़लको  -- दुनिया कार नेस्त

तर्जुमा:
मैं इश्क़ का काफ़िर हूँ मुझे मुसलमानी नहीं चाहिए,
मेरी हर रग तार बन गई है मुझे जनेऊ भी नहीं चाहिए

ए नादान वैद्य! मेरे सिरहाने से उठ जा
जिसे इश्क़ का दर्द लगा हो उसके लिए प्यारे के दीदार के सिवा कोई चारा नहीं

हम हैं और प्रेमिका का प्रेम है चाहे काबा हो चाहे बुतखाना
प्रेमिका के प्रेमियों को कुफ्र और ईमान से कोई वास्ता नहीं होता

दुनिया कहती है कि ख़ुसरो मूर्ति पूजा करता है
हाँ-हाँ करता हूँ मेरा दूनिया के कोई सरोकार नहीं है

~अमीर ख़ुसरो
Compiled By :Pawan Raj Singh
Courtesy: (अमीर ख़ुसरो और उनकी शायरी)

आज का बयान

दो दिन हुए घर पर ही तशरीफ़ फर्मा हूँ, तबियत नासाज़ है और शहर में रजाई तोड़ सर्दी ने नाक में दम कर रखा है। कोई अगर मुझसा शायर होता तो माशूक के न निकलने पर ये कह उठता,
 न निकलो तुम तो जिंदगी दूभर होती जाती है.....
मन चलों की आँख की जकात निकल जाती है....
 खैर हुआ यूँ के सारे शहर को खबर लग गई की हम ईद का चाँद हो गए हैं। उस दौर की बात का अंदाज नहीं लगाया जा सकता जब न तार थे न ख़त लोग कबूतर के गले में दिल का हाल लिख भेज देते थे, या किसी इल्म से कोई खबर इधर से उधर होती होगी। रही बात आज के दौर हमारे इस ताजा मसले की दोस्तों ने मोबाइल और व्हाट्सएप्प पर पूछना शुरू कर दिया। क्या हुआ कहाँ हो सब खेरियत तो है, ये हाल हैं हमारे और हमारी दोस्ती के,

दिल दुःखी भी है वो इस बात से की आज से जश्ने-रेख़्ता भी दिल्ली में शुरू हो गया है, मैं चाहकर भी नहीं जा सका वहां पर कुछ मजबूरिये-हालात और कुछ सादगी हमारी।

कल फिर नया सूरज निकलेगा नई उम्मीदों के साथ और हम भी उम्मीद रखते हैं कल मीर अपनी महफ़िल में होंगे और मुरीदों दोस्तों की जो जो परेशानियां और दिल के हाल हैं सब सुने जाएंगे।

बुजुर्गों से भी मिले यही अरसा हुआ वो भी क्या सोचते होंगे ।चलो खैर कोई बात नहीं, मालिक ने जब आदम को बनाया तो मिट्टी से बनाया था, फितरती चाल रक्खी अब जब हम भी उसी राह पर चल रहे हैं तो फितरती तो होंगे ही।  कभी कोई गम सताएगा, कभी कोई ख़ुशी में शरीक होंगे। कभी सेहतियाब होंगे तो कभी बीमार होंगे। कभी गर्मी गमगीन करेगी तो कभी सर्द हवाएँ मकानों में कमरों में बन्द कर देगी।

कल एक बेहतर कल होगा और सभी इंसानियत की बेहतरी की दुआ के साथ......

~पवन राज सिंह


बुधवार, 11 दिसंबर 2019

कुछ शेर जिनका दूसरा मिसरा कहावत या मुहावरा हो गया

ऐसे बहुत से शायर हुए हैं, जिनका दूसरा मिसरा इतना मशहूर हुआ कि लोग पहले मिसरे को तो भूल ही गये। ऐसे ही चन्द उधारण यहाँ पेश हैं:-

"ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है,
वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है।"
- मिर्ज़ा रज़ा बर्क़

"भाँप ही लेंगे इशारा सर-ए-महफ़िल जो किया,
ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं।"
- माधव राम जौहर

"चल साथ कि हसरत दिल-ए-मरहूम से निकले,
आशिक़ का जनाज़ा है, ज़रा धूम से निकले।"
- मिर्ज़ा मोहम्मद अली फिदवी

"दिल के फफूले जल उठे सीने के दाग़ से,
इस घर को आग लग गई, घर के चराग़ से।"
- महताब राय ताबां

"ईद का दिन है, गले आज तो मिल ले ज़ालिम,
रस्म-ए-दुनिया भी है, मौक़ा भी है, दस्तूर भी है।"
- क़मर बदायूँनी

"क़ैस जंगल में अकेला ही मुझे जाने दो,
ख़ूब गुज़रेगी, जो मिल बैठेंगे दीवाने दो।"
- मियाँ दाद ख़ां सय्याह

'मीर' अमदन भी कोई मरता है,
जान है तो जहान है प्यारे।"
- मीर तक़ी मीर

"शब को मय ख़ूब पी, सुबह को तौबा कर ली,
रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई।"
- जलील मानिकपुरी

"शहर में अपने ये लैला ने मुनादी कर दी,
कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को।"
- शैख़ तुराब अली क़लंदर काकोरवी

"ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने,
लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई।"
- मुज़फ़्फ़र रज़्मी

Compiled :Pawan Raj Singh
Courtesy:Social Media

मंगलवार, 10 दिसंबर 2019

शायरों का इक किस्सा कैफ टोंकी और यावर टोंकी का


कैफ टोंकी और यावर टोंकी बहुत अच्छे मकबूल शायर हुए हैं टोंक शहर राजस्थान के।
टोंक इक जमाने से नवाबों और शायरों का शहर रहा है। अभी भी आलिम और फाजिल लोग टोंक में रह रहे हैं और ये दौर आगे भी चलता रहेगा। रही बात इन दो शायरों के एक किस्से की
मियाँ यावर टोंकी रास्ते से कहीं जा रहे थे ज़ि बड़ा उदास उदास था तबियत भी जरा नासाज थी देखा सामने से एक दोस्त शायर कैफ टोंकी भी सामने से आ रहे हैं,
नजरें मिली कैफ ने मियाँ असलामु-अलैकुम
यावर टोंकी साहब वालेकुम-सलाम कहकर मुसाफे के लिए हाथ बढ़ा दिया दोनों ने मुसाफा किया और यावर टोंकी साहब ने कहा यार कैफ जरा कुछ सुना दे तबियत बड़ी उदास है आज ज़ि भी नहीं लग रहा तेरे किसी शेर से चेहरे की मायूसी जाती रहे।
हाजिर जवाब कैफ टोंकी साहब ने शेर अर्ज किया; आप भी गौर कीजिए:-
"कैफ के हाथ में छतरी भी है, डण्डा भी है, तलवार भी है,
कैफ खाली ही नहीं है,साहिबे हथियार भी है।"
~कैफ टोंकी

"बुजुर्गों से सुना किस्सा
(पवन राज सिंह)"

ग्यारहवीं शरीफ खीर का तबर्रुक

ग्यारहवीं शरीफ हुजूर ग़ौसे-आज़म की फातेहा
बात का जिक्र शुरू कुछ दो हफ्ता पहले मैंने जैसे ही कहा; अबकी बार ग्यारहवीं शरीफ पर यारों दूध पर फातेहा दिलाने की सोच रहा हूँ। सर्दियों के दिन हैं गरम गरम दूध में मेवा डाल कर कोई 40-50 आदमियों राहगीरों को पिलाएंगे। इतने में पनोती बाबा (शराफ़त) ने टोकते हुए कहा "गुरु खीर करेंगे दोनों में डालकर खिलाएंगे तो ज्यादा लोगों को मिलेगे, तबर्रुक को ज्यादा तकसीम होना चाहिए। उसकी बात भी काबिले गौर थी, हाजी (पकैया) पास ही बैठा था उसने कहा उस्ताद बना तो दूंगा पर ग्यारहवीं शरीफ को मुझे कहीँ जाना है अगले दिन का रख लो, उसकी मजबूरी भी काबिले गौर थी। वहीद भाई (बुजुर्ग) से इशारे में पूछा तो इशारे में ही हाज़ी की बात में हामी का इशारा कर दिया सो तय हुआ, तारीख 10 दिसम्बर दिन मंगल दिन में अढ़ाई बजे पनोती को फोन लगाया वो 3 बजे हाजिर होने का कहकर फोन काटने की इजाजत मांगने लगा। फिर हाज़ी को फोन लगाया उसने कहा उस्ताद में तीन नम्बर(पकईया के सहायक का नाम)  की राह तक रहा हूँ आधा घण्टे में हाजिर होता हूँ। सो सभी 3 बजे जमा हुए पनोती बाबा (शराफ़त) सामान खरीदने गफूर (एक दोस्त) को ले गया और गुरु को भी ले गया।  सामान लाकर हाजी को सम्भलवा दिया। रियाज ने टाट पर बैठा मिला और टाट की बोरियों पर सभी लोगों ने महफ़िल जमा ली और दूसरी तरफ हाज़ी और तीन नम्बर ने अपना खीर बनाने का काम शुरू कर दिया। सिगड़ी की मंद आंच पर खीर पक रही थी और इधर महफिल में सूफियों के किस्से शुरू हो गए गुरु बातें कहते कहते एक दम से सोचने लगा "मनान (मुनान एक मुरीद का नाम) को फोन नहीं लगाया, जेब से फोन निकाला और मनान को लगाया लंगर लूटने के बाद आएगा या पहले, उधर से आवाज आई मगरिब की नमाज तक आ जाऊँगा उस्ताद। गुरु को सभी गुरु कहते हैं मगर मनान गुरु न कहकर उस्ताद ही कहता है। असर की नमाज खत्म होते होते सभी को खबर कर दी गई। मस्जिद में इमाम साहब के टिफिन भरने की ड्यूटी तक लगा दी गई। शाम ढलने लगी मगरिब की नमाज तक मनान और अकरम (मनान का दोस्त) आ गए खीर पक चुकी और अब ठण्डी करके घुटाई का काम जारी है। देखते ही देखते खीर सामने तैयार थी। सरकार ग़ौसे आजम दस्तगीर साहब की फातेहा खीर पर दी गई, उसके बाद सभी आये लोगों को खीर का तबर्रुक पनोती बाबा ने गफूर ने रियाज ने और तीन नम्बर ने बांटा, खीर मुहब्बत वाले लोगों ने मुहब्बत से बनवाई थी इसलिए सभी खाने वालों ने तारीफ़ की, वक़्त बीतते बीतते ईशा का वक्त हुआ और सभी लोगों ने अपनी अपनी राह पकड़ ली कुछ मस्जिद की और कुछ अपने काम से और कुछ अपने घर की और चले गए। सरकार ग़ौसे आज़म दुआओं से सबका भला हो इंसानियत का भला हो।

~पवन राज सिंह
10 दिसम्बर

संगीत और अमीर ख़ुसरो

अमीर ख़ुसरो एक महान संगीतज्ञ के रूप में जाने जाते हैं, सामान्य बोलचाल में उन्हें ख़ुसरो के नाम से जानते हैं,
वाद्य व गेय(गायन) दोनों ही क्षेत्रों में संगीत को नई ऊंचाईयों तक ले जाने वाले खुसरो एक महान संगीतकार भी थे। यदि हम कहें कि वे एक अच्छे गायक और संगीतशास्त्री भी थे तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
अरबी-फारसी की सूक्तियों को भारतीय धुनों में पिरोने वाले खुसरो को अपने पीर निजामुद्दीन औलिया से "मफ़ता हुस्सामा" का खिताब मिला था। ख़ुसरो को "तराना" व "क़व्वाली" का आविष्कारक माना जाता है। वे ईरानी संगीत की भी अच्छी जानकारी रखते थे।  ईरानी व भारतीय संगीत के समन्वय से अनेक समधुर राग-रागिनियां उन्होंने तैयार की। मुस्लिम राजाओं के दौर में खुसरो ने दोनों तरह का वातावरण देखा। कभी संगीत को पूरा प्रश्रय तो कभी घोर विरोध!.... किंतु धीरे-धीरे दिल्ली दरबार देश भर के जाने-माने संगीतज्ञों व गायक-गायिकाओं का अखाड़ा बनने लगा।खुसरो को जब भी अवसर मिला, उन्होंने अपनी संगीत-कला का भरपूर प्रदर्शन किया।

आज भी क़व्वाल खुसरो को ही अपना पहला उस्ताद मानते हैं। सालान उर्स पर मजारों पर खुसरो की क़व्वालियों का ऐसा समां बंधता है कि क्या कहने! खुसरो की एक विशेषता यह भी थी कि वे किसी भी ध्वनि को सुनते ही तुरंत राग-रागिनी में ढाल देते थे। इस विषय में एक प्रसंग कहा-सुना जाता है ; कहते हैं कि खुसरो ने रुई धुनने वाले धुनिए की तांत से निकलने वाली ध्वनि को ऐसे प्रस्तुत किया, जैसे कोई राग अलापा जा रहा हो।
"दर पये जाना जां, हम रफ्त, जां हम रफ्त, जां हम रफ्त, रफ़्त-रफ़्त जां हम रफ्त..."
"रागदर्पण" नामक पस्तक में खुसरो द्वारा बनाए गए निम्नलिखित रागों का उल्लेख मिलता है।
राग मुजिर         गनम
जील्फ़              बास्तर्ज
एमन                उश्शाक
फरगाना           सर पर्दाह
मुवाफ़िक         मुनअम
फ़रोदस्त आदि।

हिन्दुस्तानी संगीत को जन्म देने वाले ख़ुसरो के काम को जहां दरबारी प्रश्रय मिला, वहीँ सूफी फ़कीरों ने भी अपना आशीर्वाद दिया। उनके विषय में अकबर के दरबारी गायक लिखते हैं
तानसेन के तुम भू नायक ख़ुसरो
करत    स्तुति    गुण    गायो   रे

यदि खुसरो के संगीत प्रेम की चर्चा हो रही हो तो वसंत के गीतों को कैसे भुला सकते हैं। उन्होंने वसंत के गीतों को ख़ानक़ाह की रौनक बनाया। हिंदुओं का वसंत राग सुन कर खुसरो झूम उठे व हिंदी-फारसी के कई शेर रच डाले।
वे पीले वस्त्र पहन वसंत मनाने जा पहुंचे व *औलिया के सामने जाकर बोले;
"अश्क रेज़ आमदस्त अब्र बहार
साकिया गुल बरेज़ो-बादः बयार"
(बहार रूपी बादल आंसू बहाने आ रहे हैं। साकी फूल बरसा और मदिरा पिला)
औलिया भी मुस्कुराने लगे और फिर दिल्ली की दरगाहों में वसंत का मेला लगने लगा।

अपने ग्रंथ "नूर-सिपहर" में खुसरो ने संगीत के बारे में लिखा है-
"हिंदुस्तानी संगीत तो एक आग है, जो मन व आत्मा दोनों को जलाती है........।
भारतीय संगीत केवल इंसानों को ही नहीं, बल्कि पशुओं को भी मंत्रमुग्ध कर देता है...
इस संगीत की ध्वनि जब अरब पहुंचती है, तो बगदाद व मिस्र के गाने वालों की जुबां ख़ामोश हो जाती है......।

खुसरो ने अनेक वाद्ययंत्रों के आविष्कार में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वीणा भारत का पुराना वाद्य था। उन्होंने उसी के आधार पर तीन तारों का "सेहतार" बनाया जो आगे चल कर सितार बना। वाद्ययंत्रों के क्षेत्र में होने वाले इन रचनात्मक परिवर्तनों के फलस्वरूप भारतीय संगीत के दोनों पक्षों को लोकप्रियता मिली।
"ढोलक" व "तबला" को भी खुसरो का ही आविष्कार माना जाता है। हमारे पास वाद्ययंत्र के रूप में पखावज था। यह थोड़ा लंबा होने के कारण जरा असुविधाजनक था। खुसरो ने इसे दो भागों में विभाजित करके 'तबले' का रूप दिया।
पखावज के लघु रूप में 'ढोलक' भी खुसरो की ही देन है। कव्वाली की सारी रौनक़ इसी से तो जमती है।
Compiled By
Pawan Raj Singh
Courtesy: सूफी सन्त अमीर ख़ुसरो व् उनकी शायरी

*औलिया(हजरत निजामुद्दीन औलिया) चिश्ती सिलसिले के सूफ़ी संत

शनिवार, 7 दिसंबर 2019

बाबा बुल्लेशाह जी का कलाम

इशक दी नविओं नवीं बहार।
फूक मुसल्ला भन्न  सिट्ट लोटा,
ना फड़ तसबी कासा सोटा,
आलिम कैंहदा दे दे होका,

तर्क हलालों खाह मुरदार।
इशक दी नविओं नवीं बहार।

उमर गवाई विच्च मसीती,
अन्दर भरिआ नाल पलीती,
कदे नमाज़ वहादत ना कीती

हुण क्यों करना ऐं धाड़ो-धाड़।
इशक दी नविओं नवीं बहार।

जाँ मैं सबक इशक दा पढ़िआ,
मस्जिद कोलों जीऊड़ा डरिआ,
भज्ज-भज्ज ठाकुर दुआरे वड़िआ,

घर विच्च पाया महिरम यार।
इशक दी नविओं नवीं बहार।

जाँ मैं रमज़ इशक दी पाई,
मैनूँ तूती मार गवाई,
अन्दर बाहर होई सफाई,

जित वल्ल वेखाँ यारो यार।
इशक दी नविओं नवीं बहार।

हीर राँझण दे हो गए मेले,
भुल्ली हीर ढुँढेंदी मेले,
राँझण यार बगल विच्च खेले,

मैनूँ सुध बुध रहीना सार।
इशक दी नविओं नवीं बहार।

वेद कुरानाँ पढ़-पढ़ थक्के,
सिजदे करदिआँ घस गए मत्थे,
ना रब्ब तीरथ ना रब्ब मक्के,

जिन पाया तिन नूर अनवार।
इशक दी नविओं नवीं बहार।

इशक भुलाया सिजदा तेरा,
हुण क्यों ऐवें पावें झेड़ा,
बुल्ला हो रहो चुप्प चुपेड़ा,

चुक्की सगली कूक पुकार।
इशक दी नविओं नवीं बहार।

~बाबा बुल्लेशाह जी

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

जीवन का सफर

एक बार एक नदी में हाथी की लाश बही जा रही थी।
एक कौए ने लाश देखी, तो प्रसन्न हो उठा, तुरंत उस पर आ बैठा।

यथेष्ट मांस खाया। नदी का जल पिया। उस लाश पर इधर-उधर फुदकते हुए कौए ने परम तृप्ति की डकार ली।

वह सोचने लगा, अहा ! यह तो अत्यंत सुंदर यान है, यहां भोजन और जल की भी कमी नहीं। फिर इसे छोड़कर अन्यत्र क्यों भटकता फिरूं ?

कौआ नदी के साथ बहने वाली उस लाश के ऊपर कई दिनों तक रमता रहा.. भूख लगने पर वह लाश को नोचकर खा लेता, प्यास लगने पर नदी का पानी पी लेता।

अगाध जलराशि, उसका तेज प्रवाह, किनारे पर दूर-दूर तक फैले प्रकृति के मनोहरी दृश्य-इन्हें देख-देखकर वह विभोर होता रहा।

नदी एक दिन आखिर महासागर में मिली। वह मुदित थी कि उसे अपना गंतव्य प्राप्त हुआ।

सागर से मिलना ही उसका चरम लक्ष्य था, किंतु उस दिन लक्ष्यहीन कौए की तो बड़ी दुर्गति हो गई।

चार दिन की मौज-मस्ती ने उसे ऐसी जगह ला पटका था, जहां उसके लिए न भोजन था, न पेयजल और न ही कोई आश्रय। सब ओर सीमाहीन अनंत खारी जल-राशि तरंगायित हो रही थी।

कौआ थका-हारा और भूखा-प्यासा कुछ दिन तक तो चारों दिशाओं में पंख फटकारता रहा, अपनी छिछली और टेढ़ी-मेढ़ी उड़ानों से झूठा रौब फैलाता रहा, किंतु महासागर का ओर-छोर उसे कहीं नजर नहीं आया।

आखिरकार थककर, दुख से कातर होकर वह सागर की उन्हीं गगनचुंबी लहरों में गिर गया। एक विशाल मगरमच्छ उसे निगल गया।

शारीरिक सुख में लिप्त मनुष्यों की भी गति उसी कौए की तरह होती है, जो आहार और आश्रय को ही परम गति मानते हैं और अंत में अनन्त संसार रूपी सागर में समा जाते है।

जीत किसके लिए, हार किसके लिए
      ज़िंदगी भर ये तकरार किसके लिए..
जो भी आया है वो जायेगा एक दिन
      फिर ये इतना अहंकार किसके लिए
विचार कीजिये........हाँ आप ही से कह रहा हूँ, विचार किजिये।
Compiled By
Pawan Raj Singh
Courtesy :Anonymous

फिजूल की चिंताएँ

एक फकीर को उसके सेवक जो भी सेवा में देते थे, सब कुछ शाम को बाँट देते , और रात को फिर से मालिक के भिखारी हो कर सो जाते थे।
यह उनकी ज़िन्दगी का शानदार और सुनहरा नियम था, एक रोज़ वो फकीर साहिब सख़्त बीमार हो गये, लेकिन फिर भी ख़ुदा की इबादत, रोज़ का भजन सिमरन नहीं छोड़ा।
उनकी ये हालत देखकर उनकी बीवी ज़ोर ज़ोर से रोने लगी, फकीर साहिब ये देखकर ज़ोर से हँसने लग, और ख़ुदा का शुक्र करने लगे, कि ऐ मेरे शहनशाह, तुम मुझे, मेरी उम्मीद से बहुत ज़्यादा प्यार करते हो।
उनकी हालत देखकर हकीम ने कहा, कि अब तो मुझे इनके बचने की कोई सूरत नज़र नहीं आती है, सेवा करो और खुदा को याद करो।
उनकी बीवी ने सोचा कि अगर ऐसे मुश्किल वक्त में दवादारू की जरूरत पड़ी या रात को वैद्य जी को बुलाना पड़ा तो मैं क्या करूँगी , उसने ये सोच कर सेवा में आये हुए रूपयों में से पाँच दीनार बचा कर रख लिए
आधी रात को  फकीर तेज़ दर्द से तड़पने और छटपटाने लगे
उन्होंने दर्द से कराहते हुए अपनी बीवी को बुलाया और पूछा कि देखो मुझे लगता है कि मेरे जीवन भर का जो नियम था, मुझे दान का एक पैसा भी अपने पास नहीं रखना, मेरी वो प्रतिज्ञा शायद आज टूट जायेगी, वो भी मेरे आखिरी वक्त में, ऐ खुदा मुझे माफ कर देना
मैंने आने वाले कल के लिए रात को कभी भी कोई इन्तज़ाम नहीं किया, बल्कि अपने ख़ुदा पे पक्का भरोसा रखा और मेरे मौला ने हमेशा मेरी लाज रखी*
लेकिन आज मुझे  बहुत डर लग रहा है कि जैसे आज हमारे घर में दान में आये हुए, सेवा से बचे हुए कुछ रुपये रखे हैं भलीमानस अगर तूने रखे हों, तो जल्दी से तूँ उन्हें  ज़रूरतमन्दों को बाँट दो।
नहीं तो मुझे ख़ुदा के सामने शर्मिंदा होना पड़ेगा, जब मेरा मालिक मुझसे ये पूछेगा कि, आखिरी दिन, तूने अपना भरोसा क्यूँ तोड़ दिया और कल के लिये कुछ दीनार या रूपये क्यूँ बचा लिए?
फकीर की बीवी  घबरा कर रोने लगी और हैरान हो गई कि इन्हें कैसे पता चला!?
उसने जल्दी से वो  पाँच दीनार जो बचाए थे, निकाल कर फकीर के आगे रख दिए और रोते हुए कहा कि मुझसे भूल हो गई!, मुझे माफ कर दीजिए, फकीर भी रोने लगा और रोते हुए बोला, खुदा के घर मे सच्चे दिल से पछतावा करते हुए माफी माँगने वालों को माफ कर दिया जाता है, जाओ मेरे खुदा ने तुझे माफ किया।बीवी दोनों हाथ जोड़ कर रोते हुए बोली, जी मैने तो ये सोचकर पाँच दीनार रखे थे कि रात को अगर चार पैसों की ज़रूरत पड़ी, तो मैं ग़रीब कहाँ से लाऊँगी जी ??
फकीर ने दर्द में भी हँसते हुए उसे समझाया।, अरी पगली जिस खुदा ने हमें हर बार दिया है, हर रोज़ दिया है, आज तक भरपूर दिया है।
क्या कभी हम भूखे रहे ,क्या आज तक हमारी हर जरूरत पूरी नहीं हुई ? ज़रा सोचो, हमारा एक भी दिन उसकी रहमत के बिना या उसके प्यार के बिना गुज़रा है ?
जो सारी दुनिया को उनकी ज़रूरत की हर शै अगर सुबह देता है, तो साँझ को भी देता है, तो क्या वो खुदा आधी रात को नहीं दे सकेगा?
तू ज़रा बाहर  दरवाजे पर तो जा के देख, शायद कोई ज़रूरतमन्द खड़ा हो। बीवी बोली, जी आधी रात को भला कौन मिलेगा ??
फकीर बोला, तुम फौरन बाहर जा कर देखो, मेरा खुदा बहुत दयालु है, वही कोई ज़रिया बनायेगा, बीवी आधे अधूरे मन से वो पाँच दीनार ले कर  दरवाज़े पर गई।
जैसे ही उसने किवाड़ खोले, तो देखा एक याचक खड़ा था। वो बोला, बहन मुझे पाँच दीनार की सख्त जरूरत है, फकीर की बीवी ने बहुत हैरानी से अपनी आँखों को मला, कि कहीं मैं कोई सपना तो नहीं देख रही हूँ।
जब उसने वही पाँच चाँदी के रूपये उसे दिये तो उसने कहा, कि खुदा बहुत दयालु है, वो तुम्हारे पूरे परिवार पर अपनी दया मेहर बरसायेगा बहन। हैरान और परेशान, जब वो अपने पति को बतलाने गई, कि उसने पाँच दीनार एक ज़रूरतमन्द को दे दिये, और वो दुआऐं देता हुआ गया है।
फकीर ने कहा. देखो भाग्यवान देने वाला भी वही है, और लेने वाला बन कर भी वो ख़ुद ही आता है, हम तो फिज़ूल की चिन्तायें खड़ी कर लेते हैं, फिर चिंता में बुरी तरह से बँध जाते हैं।
फिर मोह ममता के झूठे बँधनों के टूटने से बहुत दुखी होते हैं रोते हैं,चिल्लाते हैं।
 अब मैं खुदा के सामने सिर उठा कर शान से कहूँगा कि मेरे प्रीतम जी, मुझे केवल एक तेरा ही सहारा था, मैंनें आखिरी साँस तक अपना प्रण निभाया है, मैने अपने सतगुरू से ये वायदा किया था, कि सारी उम्र, किसी के आगे हाथ नहीं फैलाऊँगा दाता।
जिसका परमात्मा में और अपने मुर्शिद में पक्का भरोसा है उसका फिर कोई बंधन नहीं कोई दुख नहीं रहता।
लेकिन दुनिया वालों को परमात्मा में या अपने गुरू पर पूरा और पक्का भरोसा नहीं है , हम ज़रा विचार करें कि हमारा भरोसा किन चीजों में है। बीमा कंपनी में है, बैंकों में जमा, अपने रूपयों पर है, अपनी पत्नी  में है, पति में है, परिवार में है, माता पिता में है, बेटे बेटी पर है हमारे तो कितने भरोसे हैं।
फकीर ने अपने मुँह पर चादर डाल ली और कहने लगे कि ऐ मेरे मौला, मुझे अपने कदमों में जगह बख्शो और इतना कह कर शाँति से सो गये। उस फकीर ने खुदा के नाम का सिमरन करते हुए चोला छोड़ दिया और मुकामे हक चला गया।
जैसे केवल पाँच दीनार उसके दुखों का कारण थे। उनके कारण ही वो बेचैन थे, मन पर बोझ था, बंधन था! बाँट दिये बँधन मुक्त हो गये।हम जुबान से तो सारे ही कहते हैं कि हम सारे दुखों से आज़ाद होना चाहते हैं लेकिन आज़ाद होने के लिए हम जो भी कर्म करते हैं वही हमें बांध लेते हैं।एक भरोसा, एक बल, एक आस, बिस्वास
स्वाँति सलिल, गुरू चरण हैं।
Compiled By
Pawan Raj Singh
Courtesy:Anonymous

गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

प्रेरक कहानी-सूफ़ी सन्त अबू हफस हदाद

महान सूफी संत अबू हफस हदाद पहले एक लोहार थे। हदाद का अर्थ ही लोहार है। एक बार हदाद को एक कनीज से इश्क हो गया। उनका लोहा पीटने या कुल्हाड़ी बनाने में मन ही न लगता। जैसे ही हथौड़ा हाथ में लें, कनीज का चेहरा आंख के सामने दौड़ जाता और हाथ कमजोर पड़ जाते। कनीज से उन्होंने अपने दिल की बात बताने की कई जुगत भिड़ाई, मगर कोई भी काम नहीं आई।

थक-हारकर एक रोज वह अपने नजदीक के एक बहुत मशहूर जादूगर के पास पहुंचे और उससे प्रार्थना की कि वह कोई जादू करे। अबू के दिल का हाल जानकर जादूगर उनकी राह आसान करने को तैयार हो गया। जादूगर ने उनसे कहा कि तुम्हें चालीस दिन तक प्रार्थना और नेक कामों से दूरी बरतनी पड़ेगी, तभी जादू का असर होगा। जादूगर की बात मान हदाद घर लौट आए और उन्होंने प्रार्थनाएं और जो भी छोटे-मोटे नेक काम वह किया करते थे, सब छोड़कर जादू के इंतजार में बैठ गए।

चालीस रोज बाद जब वह कनीज उन्हें नहीं मिली तो वह जादूगर के पास फिर पहुंचे और बोले कि अब भी वह मुझे नहीं मिली। जादूगर ने उनसे पूछा कि इस बीच तुमने कोई नेक काम तो नहीं किया? उन्होंने कहा- नहीं। जादूगर बोला, याद करो, तुमने किया है। तब अबू हफस ने बताया कि चलते वक्त वह रास्ते में पड़ने वाले कंकड़-पत्थर बीनकर किनारे करते रहे कि किसी को चोट न लग जाए।

तब जादूगर मुस्कुराया और बोला, ‘जिसकी प्रार्थनाओं को छोड़े हुए हो, वह तुम्हारी इस मामूली सी नेकी को भी पसंद करके तुम्हारे साथ खड़ा है। उसे छोड़कर तुम कनीज से दिल लगाए हो?’ यह बात हदाद के दिल पर लग गई और वह वहीं से ईश्वर की ओर लौट पड़े। अपनी सेवा, प्रेम, त्याग और समर्पण से उस दौर के बड़े सूफी संत अबू हफस हदाद बने।
Compiled By
Pawan raj singh
Courtesy:Anonymous

अमीर ख़ुसरो के सूफ़ियाना दोहे

अमीर ख़ुसरो के सूफ़ी दोहे इस प्रकार हैं

1.
रैनी चढ़ी रसूल की सो रंग मौला के हाथ।
जिसके कपरे रंग दिए सो धन धन वाके भाग।।
2.
खुसरो बाज़ी प्रेम की मैं खेलूँ पी के संग।
जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।।
3.
चकवा चकवी दो जने इन मत मारो कोय।
ये मारे करतार के रैन बिछोया होय।।
4.
खुसरो ऐसी पीत कर जैसे हिन्दू जोय।
पूत पराए कारने जल जल कोयला होय।।
5.
खुसरवा दर इश्क बाज़ी कम जि हिन्दू जन माबाश।
कज़ बराए मुर्दा मा सोज़द जान-ए-खेस रा।।
6.
उज्ज्वल बरन अधीन तन एक चित्त दो ध्यान।
देखत में तो साधु है पर निपट पाप की खान।।
7.
श्याम सेत गोरी लिए जनमत भई अनीत।
एक पल में फिर जात है जोगी काके मीत।।
8.
पंखा होकर मैं डुली, साती तेरा चाव।
मुझ जलती का जनम गयो तेरे लेखन भाव।।
9.
नदी किनारे मैं खड़ी सो पानी झिलमिल होय।
पी गोरी मैं साँवरी अब किस विध मिलना होय।।
10.
साजन ये मत जानियो तोहे बिछड़त मोहे को चैन।
दिया जलत है रात में और जिया जलत बिन रैन।।
11.
रैन बिना जग दुखी और दुखी चन्द्र बिन रैन।
तुम बिन साजन मैं दुखी और दुखी दरस बिन नैंन।।
12.
अंगना तो परबत भयो, देहरी भई विदेस।
जा बाबुल घर आपने, मैं चली पिया के देस।।
12.
आ साजन मोरे नयनन में, सो पलक ढाप तोहे दूँ।
न मैं देखूँ और न को, न तोहे देखन दूँ।
14.
अपनी छवि बनाई के मैं तो पी के पास गई।
जब छवि देखी पीहू की सो अपनी भूल गई।।
15.
खुसरो पाती प्रेम की बिरला बाँचे कोय।
वेद, क़ुरान, पोथी पढ़े, प्रेम बिना का होय।।
16.
संतों की निंदा करे, रखे पर नारी से हेत।
वे नर ऐसे जाऐंगे, जैसे रणरेही का खेत।।
17
खुसरो सरीर सराय है क्यों सोवे सुख चैन।
कूच नगारा सांस का, बाजत है दिन रैन।।
~अमीर ख़ुसरो।।

बुधवार, 4 दिसंबर 2019

नया फ़लसफ़ा

कल मुझे जब सीने पे गोलियां लग जाएंगी,
तुम अपने बिस्तर रहोगे और खबर छप जायेगी।

ये जिंदगी तो आनी जानी है अ' मेरे हमवतन,
जो भी सिकन्दर है कहानी उसकी बन जाएगी।

जाने कितने चमन में खिलेंगे और गुल,
फूल तो बस है वही खुश्बू जिसकी उड़ जाएगी।

हम रहें या ना रहें अ' दोस्तों फिर जमाने में,
निशानी हमारी हमेशा के लिए रह जाएगी।

जाने को जाना है इक रोज जमाने से सभी को,
जाने की अदा ही अपनी दास्ताँ कह जायेगी।

हम समन्दर ना सही पर ए दोस्त सुन रख ये भी
हमसी लहरों में समन्दर की रवानी रह जाएगी।
~पवन राज सिंह

रविवार, 1 दिसंबर 2019

I'm going together with Jogi
Going to Makkah is not the ultimate
Even if hundreds of prayers are offered
Going to River Ganges is not the ultimate
Even if hundreds of cleansing (Baptisms) are done
Going to Gaya is not the ultimate
Even if hundreds of worships are done
Bulleh Shah the ultimate is
When the "I" is removed from the heart
[He] Read a lot and became a scholar
But [he] never read himself
[He] goes enters into the temple & mosque
But [he] never entered into his own heart
He fights with the devil every day for nothing
He never wrestled with his own ego
Bulleh Shah he grabs for heavenly flying things
But doesn't grasp the one who's sitting at home
Religious scholars stay awake at night
But dogs stay awake at night, higher than you
They don't cease from barking at night
Then they go sleep in yards, higher than you
They [dogs] don't leave the beloved's doorstep
Even if they're beaten hundreds of times, higher than you
Bulleh Shah get up and make up with the beloved
Otherwise dogs will win the contest, better than you
O friends, don't call Ranjha a shepherd
I shy away from calling him a shepherd
I am like a thousand Heers to him
Who am I, like countless others
He's the ruler of Hazara's throne
And I am forever the plain Heer
Bulleh Shah may God hear my wail
And I'll become shepherded by the Shepherd
Ranjha became a Jogi and arrived
He exchanged into a unique disguise
He changed his name from Ahad (One God) to Ahmad (Prophet Mohammad PBUH)
I'm going together with Jogi
Someone's with someone else, this one's with that one
I'm together with Jogi
Since I have become Jogi's
I have no "I" left in me
Repeating Ranjha Ranjha
I became Ranjha myself
Call me Ranjha
Nobody call me Heer
It's not me, it's he himself
He amuses his own self
The one with whom I connected my heart
I became just like him, O friends
Jogi is with me
I am with Jogi
I'm going together with Jogi
After putting earrings in my ears
and decorating my forehead with Tilak
Hey he's not [a] Jogi
He's some form of God
He's disguised as Jogi
This Jogi has attracted me
This Jogi has established residence in my heart
I swear by the Quran it's true
Jogi is my belief and faith
This Jogi has marked me
Hey I belong to him
Now I'm not worth any one else (Now there's no other Jogi)
I'm floating, I've drifted across, O people
My eyes inter-meshed with Jogi's, O people
Call me Jogi's female Jogi
Heer is dead, O people
In Khayrray they have deep talks
I have to listen to accusations about
I don't know anything about anyone else
If I know anything, I only know Jogi
No one has attained what he has attained
His shadow is on both worlds
His fame is celebrated in both world
His shoes were kissed by Heaven
This Jogi is full of wonders
In his hand is the rosary of "There is Nothing But One God"
Hey, his name is [Mohammad] "The One With The Shawl"
If Jogi comes to my home
All your fights will end
I will embrace him
And celebrate a million praises
Bulleh Shah a Jogi came
To our door….(…? …)
He stole away Heer of Sayal
He came in a disguise

Baba Bulleh Shah

कलाम 19

 दर्द-ए-इश्क़ दिल को दुखाता है बहुत विसाल-ए-यार अब याद आता है बहुत ज़ब्त से काम ले अ' रिंद-ए-खराब अब मयखाने में दौर-ए-ज़ाम आता है बहुत साक़ी...