Watch

मंगलवार, 10 दिसंबर 2019

ग्यारहवीं शरीफ खीर का तबर्रुक

ग्यारहवीं शरीफ हुजूर ग़ौसे-आज़म की फातेहा
बात का जिक्र शुरू कुछ दो हफ्ता पहले मैंने जैसे ही कहा; अबकी बार ग्यारहवीं शरीफ पर यारों दूध पर फातेहा दिलाने की सोच रहा हूँ। सर्दियों के दिन हैं गरम गरम दूध में मेवा डाल कर कोई 40-50 आदमियों राहगीरों को पिलाएंगे। इतने में पनोती बाबा (शराफ़त) ने टोकते हुए कहा "गुरु खीर करेंगे दोनों में डालकर खिलाएंगे तो ज्यादा लोगों को मिलेगे, तबर्रुक को ज्यादा तकसीम होना चाहिए। उसकी बात भी काबिले गौर थी, हाजी (पकैया) पास ही बैठा था उसने कहा उस्ताद बना तो दूंगा पर ग्यारहवीं शरीफ को मुझे कहीँ जाना है अगले दिन का रख लो, उसकी मजबूरी भी काबिले गौर थी। वहीद भाई (बुजुर्ग) से इशारे में पूछा तो इशारे में ही हाज़ी की बात में हामी का इशारा कर दिया सो तय हुआ, तारीख 10 दिसम्बर दिन मंगल दिन में अढ़ाई बजे पनोती को फोन लगाया वो 3 बजे हाजिर होने का कहकर फोन काटने की इजाजत मांगने लगा। फिर हाज़ी को फोन लगाया उसने कहा उस्ताद में तीन नम्बर(पकईया के सहायक का नाम)  की राह तक रहा हूँ आधा घण्टे में हाजिर होता हूँ। सो सभी 3 बजे जमा हुए पनोती बाबा (शराफ़त) सामान खरीदने गफूर (एक दोस्त) को ले गया और गुरु को भी ले गया।  सामान लाकर हाजी को सम्भलवा दिया। रियाज ने टाट पर बैठा मिला और टाट की बोरियों पर सभी लोगों ने महफ़िल जमा ली और दूसरी तरफ हाज़ी और तीन नम्बर ने अपना खीर बनाने का काम शुरू कर दिया। सिगड़ी की मंद आंच पर खीर पक रही थी और इधर महफिल में सूफियों के किस्से शुरू हो गए गुरु बातें कहते कहते एक दम से सोचने लगा "मनान (मुनान एक मुरीद का नाम) को फोन नहीं लगाया, जेब से फोन निकाला और मनान को लगाया लंगर लूटने के बाद आएगा या पहले, उधर से आवाज आई मगरिब की नमाज तक आ जाऊँगा उस्ताद। गुरु को सभी गुरु कहते हैं मगर मनान गुरु न कहकर उस्ताद ही कहता है। असर की नमाज खत्म होते होते सभी को खबर कर दी गई। मस्जिद में इमाम साहब के टिफिन भरने की ड्यूटी तक लगा दी गई। शाम ढलने लगी मगरिब की नमाज तक मनान और अकरम (मनान का दोस्त) आ गए खीर पक चुकी और अब ठण्डी करके घुटाई का काम जारी है। देखते ही देखते खीर सामने तैयार थी। सरकार ग़ौसे आजम दस्तगीर साहब की फातेहा खीर पर दी गई, उसके बाद सभी आये लोगों को खीर का तबर्रुक पनोती बाबा ने गफूर ने रियाज ने और तीन नम्बर ने बांटा, खीर मुहब्बत वाले लोगों ने मुहब्बत से बनवाई थी इसलिए सभी खाने वालों ने तारीफ़ की, वक़्त बीतते बीतते ईशा का वक्त हुआ और सभी लोगों ने अपनी अपनी राह पकड़ ली कुछ मस्जिद की और कुछ अपने काम से और कुछ अपने घर की और चले गए। सरकार ग़ौसे आज़म दुआओं से सबका भला हो इंसानियत का भला हो।

~पवन राज सिंह
10 दिसम्बर

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कलाम 19

 दर्द-ए-इश्क़ दिल को दुखाता है बहुत विसाल-ए-यार अब याद आता है बहुत ज़ब्त से काम ले अ' रिंद-ए-खराब अब मयखाने में दौर-ए-ज़ाम आता है बहुत साक़ी...