जय सिंह के गले की घण्टी बन गया है, इमाम साहब का पान हर दो घण्टे या एक घण्टे में एक नया आशिक़ आ जाता है और ईमाम साहब के नाम से पान खरीद कर ले जाता है । मद्रासी पत्ते पर कत्थे और चुने के ऊपर देसी जर्दा और पिपरमेंट बस, छालिया(सुपारी) अलग से दूसरी पुड़िया में पैक होती है, अच्छा इस पान को भी यूँहीं नहीं खाया जाता इमाम साहब इस पान को अपने पास में जमीन पर खोलकर रख देते हैं। पान पर कत्था, चुना जब तक सूख नहीं जाता पान में पिपरमेंट और जर्दे का स्वाद रचता नहीं है। रही बात जयसिंह की तो जय सिंह खुद भी इक जमाने से इमाम साहब का आशिक है, मथुरा बृंदावन की धरती से 40/50 बरस पहले आकर शहर में पान का ठिया लगाया था, उस जमाने से ही इमाम साहब का आना जाना है। इमाम साहब खुद ख़ानदानी नवाबजादे हैं,और वक्त की आँधियों ने नवाबी भी छीन ली फिर अमीरी छिनी फिर रही सही आम सी जिंदगी भी, बरसों से बस्ती फकीरान में रहते रहते खुद भी फ़कीर हो गए हैं, खुद इमाम साहब का कहा है "मियाँ पैसे वाले होते तो इतनी मुहब्बत न मिलती, ये मुहब्बत तो सिर्फ गरीब बस्तियों में ही है। फ़कीर के माने दो होते हैं इक फ़कीर किसी गरीब आदमी को कहा जाता है, और इक वो होता है जो अपने क़ासे रखता तो सारी दौलत है पर दुनिया को लगता है ये मांगने वाला है। वो होती है असली फ़कीरी।" ये बात बताते बताते इमाम साहब कोई शेर यूँ पढ़ देते हैं;
"गोया यूँ तो ख़ानदानी रईस थे
मगर जिंदगी फकीरों में गुजारी है"
तो जो उनकी ख़ानदानी रईसी है उसने पान का इक अदद शोक छुटने न दिया जिस जमाने जवां थे, उस जमाने में चौराहे पर जाकर पान के ठियों पर खड़े हो जाते, वालिदा ने क़ुरआन हाफ़िज बना दिया था, अपने बेटे को पर उर्दू और शायरी का शोक नया नया चढ़ा था जहन पर, जिसकी हर रोज की खुराक चौराहे पर पान के ठियों पर ही मिलती, अब इस सोहबत ने शायरों के साथ रहने से पान का शौकीन भी बना दिया। शायरों को पान मुंह में दबाकर शेर कहने की जो आदत होती है,
हजारों मंज़िलें होंगी हजारों कारवां होंगे
बहारें हमको ढूंढेंगी न जाने हम कहाँ होंगे
क्या दमे-वस्ल कोई तेरा मेरी जान भरे
सेकड़ों मर गये इस राह में अरमान भरे
मुद्दतों गरचे रही पर्दे से बाहर लैला
बस सिवा केस के उसका कोई आशिक़ न हुआ
तू मगर वो है के जब तूने दिखाया जल्वा
तेरे दीवानों से कल को हो बयाबान भरे
किसी रहीस की महफ़िल का जिक्र क्या है 'अमीर'
ख़ुदा के घर भी न जाएंगे बिन बुलाए हुए
ये आदत इनको(इमाम साहब को) भी लगी जो अब भी जारी है, आपको जो भी शेर गज़ल कोई पढ़कर सूना भी देता एक बार भी तो याद हो जाती गज़ल हो या शेर हो तो याद हो जाता शेर भी। खैर वो जमाने गुजरे वक्त हुआ। अब बस मस्जिद से हुजरा और हुजरे से मस्जिद तक दौड़ होती है या कभी कभी तो वजू खाने से मस्जिद और मस्जिद से वजू खाने ही का सफर होता है, पर कहते हैं "मियाँ तुम जैसे लोग न हों या कोई आशिक न हो तो पान की खातिर 15 किलोमीटर तो जा सकता हूँ तो ये जयसिंह की दूकान कोनसी दूर है।"
अब ये किस्सा तमाम नहीं हुआ है, आज मेरे पढ़ने वालों को सिर्फ इस केरेक्टर इमाम साहब से मिलवाना था जो आज इस छोटी सी दास्ताँ-गोई में आप लोगों से तार्रुफ़ करवाने की मेरी कोशिश है।
~पवन राज सिंह
15-दिसम्बर
"गोया यूँ तो ख़ानदानी रईस थे
मगर जिंदगी फकीरों में गुजारी है"
तो जो उनकी ख़ानदानी रईसी है उसने पान का इक अदद शोक छुटने न दिया जिस जमाने जवां थे, उस जमाने में चौराहे पर जाकर पान के ठियों पर खड़े हो जाते, वालिदा ने क़ुरआन हाफ़िज बना दिया था, अपने बेटे को पर उर्दू और शायरी का शोक नया नया चढ़ा था जहन पर, जिसकी हर रोज की खुराक चौराहे पर पान के ठियों पर ही मिलती, अब इस सोहबत ने शायरों के साथ रहने से पान का शौकीन भी बना दिया। शायरों को पान मुंह में दबाकर शेर कहने की जो आदत होती है,
हजारों मंज़िलें होंगी हजारों कारवां होंगे
बहारें हमको ढूंढेंगी न जाने हम कहाँ होंगे
क्या दमे-वस्ल कोई तेरा मेरी जान भरे
सेकड़ों मर गये इस राह में अरमान भरे
मुद्दतों गरचे रही पर्दे से बाहर लैला
बस सिवा केस के उसका कोई आशिक़ न हुआ
तू मगर वो है के जब तूने दिखाया जल्वा
तेरे दीवानों से कल को हो बयाबान भरे
किसी रहीस की महफ़िल का जिक्र क्या है 'अमीर'
ख़ुदा के घर भी न जाएंगे बिन बुलाए हुए
ये आदत इनको(इमाम साहब को) भी लगी जो अब भी जारी है, आपको जो भी शेर गज़ल कोई पढ़कर सूना भी देता एक बार भी तो याद हो जाती गज़ल हो या शेर हो तो याद हो जाता शेर भी। खैर वो जमाने गुजरे वक्त हुआ। अब बस मस्जिद से हुजरा और हुजरे से मस्जिद तक दौड़ होती है या कभी कभी तो वजू खाने से मस्जिद और मस्जिद से वजू खाने ही का सफर होता है, पर कहते हैं "मियाँ तुम जैसे लोग न हों या कोई आशिक न हो तो पान की खातिर 15 किलोमीटर तो जा सकता हूँ तो ये जयसिंह की दूकान कोनसी दूर है।"
अब ये किस्सा तमाम नहीं हुआ है, आज मेरे पढ़ने वालों को सिर्फ इस केरेक्टर इमाम साहब से मिलवाना था जो आज इस छोटी सी दास्ताँ-गोई में आप लोगों से तार्रुफ़ करवाने की मेरी कोशिश है।
~पवन राज सिंह
15-दिसम्बर
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