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शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

कलामे-अमीर ख़ुसरो :---काफ़िरे-इश्क़म मुसलमानी मरा दर कार नेस्त

काफ़िरे-इश्क़म मुसलमानी मरा दर कार नेस्त,
हर रगे मन तार गश्ता हाजते जुन्नार नेस्त

अज सरे बालीने मन बर ख़ेज़ ए बादाँ तबीब,
दर्द मन्द इश्क़ का दारो -- बख़ैर दीदार नेस्त

मा व इश्क़ यार अगर किब्ला गर दर बुतकदा,
आशिकान दोस्त रा बकुफ़्रो -- इमां कार नेस्त

ख़ल्क़ भी गोयद के ख़ुसरो बुत परस्ती भी कुनद,
आरे-आरे भी कुनम बा ख़लको  -- दुनिया कार नेस्त

तर्जुमा:
मैं इश्क़ का काफ़िर हूँ मुझे मुसलमानी नहीं चाहिए,
मेरी हर रग तार बन गई है मुझे जनेऊ भी नहीं चाहिए

ए नादान वैद्य! मेरे सिरहाने से उठ जा
जिसे इश्क़ का दर्द लगा हो उसके लिए प्यारे के दीदार के सिवा कोई चारा नहीं

हम हैं और प्रेमिका का प्रेम है चाहे काबा हो चाहे बुतखाना
प्रेमिका के प्रेमियों को कुफ्र और ईमान से कोई वास्ता नहीं होता

दुनिया कहती है कि ख़ुसरो मूर्ति पूजा करता है
हाँ-हाँ करता हूँ मेरा दूनिया के कोई सरोकार नहीं है

~अमीर ख़ुसरो
Compiled By :Pawan Raj Singh
Courtesy: (अमीर ख़ुसरो और उनकी शायरी)

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