अमीर ख़ुसरो एक महान संगीतज्ञ के रूप में जाने जाते हैं, सामान्य बोलचाल में उन्हें ख़ुसरो के नाम से जानते हैं,
वाद्य व गेय(गायन) दोनों ही क्षेत्रों में संगीत को नई ऊंचाईयों तक ले जाने वाले खुसरो एक महान संगीतकार भी थे। यदि हम कहें कि वे एक अच्छे गायक और संगीतशास्त्री भी थे तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
अरबी-फारसी की सूक्तियों को भारतीय धुनों में पिरोने वाले खुसरो को अपने पीर निजामुद्दीन औलिया से "मफ़ता हुस्सामा" का खिताब मिला था। ख़ुसरो को "तराना" व "क़व्वाली" का आविष्कारक माना जाता है। वे ईरानी संगीत की भी अच्छी जानकारी रखते थे। ईरानी व भारतीय संगीत के समन्वय से अनेक समधुर राग-रागिनियां उन्होंने तैयार की। मुस्लिम राजाओं के दौर में खुसरो ने दोनों तरह का वातावरण देखा। कभी संगीत को पूरा प्रश्रय तो कभी घोर विरोध!.... किंतु धीरे-धीरे दिल्ली दरबार देश भर के जाने-माने संगीतज्ञों व गायक-गायिकाओं का अखाड़ा बनने लगा।खुसरो को जब भी अवसर मिला, उन्होंने अपनी संगीत-कला का भरपूर प्रदर्शन किया।
आज भी क़व्वाल खुसरो को ही अपना पहला उस्ताद मानते हैं। सालान उर्स पर मजारों पर खुसरो की क़व्वालियों का ऐसा समां बंधता है कि क्या कहने! खुसरो की एक विशेषता यह भी थी कि वे किसी भी ध्वनि को सुनते ही तुरंत राग-रागिनी में ढाल देते थे। इस विषय में एक प्रसंग कहा-सुना जाता है ; कहते हैं कि खुसरो ने रुई धुनने वाले धुनिए की तांत से निकलने वाली ध्वनि को ऐसे प्रस्तुत किया, जैसे कोई राग अलापा जा रहा हो।
"दर पये जाना जां, हम रफ्त, जां हम रफ्त, जां हम रफ्त, रफ़्त-रफ़्त जां हम रफ्त..."
"रागदर्पण" नामक पस्तक में खुसरो द्वारा बनाए गए निम्नलिखित रागों का उल्लेख मिलता है।
राग मुजिर गनम
जील्फ़ बास्तर्ज
एमन उश्शाक
फरगाना सर पर्दाह
मुवाफ़िक मुनअम
फ़रोदस्त आदि।
हिन्दुस्तानी संगीत को जन्म देने वाले ख़ुसरो के काम को जहां दरबारी प्रश्रय मिला, वहीँ सूफी फ़कीरों ने भी अपना आशीर्वाद दिया। उनके विषय में अकबर के दरबारी गायक लिखते हैं
तानसेन के तुम भू नायक ख़ुसरो
करत स्तुति गुण गायो रे
यदि खुसरो के संगीत प्रेम की चर्चा हो रही हो तो वसंत के गीतों को कैसे भुला सकते हैं। उन्होंने वसंत के गीतों को ख़ानक़ाह की रौनक बनाया। हिंदुओं का वसंत राग सुन कर खुसरो झूम उठे व हिंदी-फारसी के कई शेर रच डाले।
वे पीले वस्त्र पहन वसंत मनाने जा पहुंचे व *औलिया के सामने जाकर बोले;
"अश्क रेज़ आमदस्त अब्र बहार
साकिया गुल बरेज़ो-बादः बयार"
(बहार रूपी बादल आंसू बहाने आ रहे हैं। साकी फूल बरसा और मदिरा पिला)
औलिया भी मुस्कुराने लगे और फिर दिल्ली की दरगाहों में वसंत का मेला लगने लगा।
अपने ग्रंथ "नूर-सिपहर" में खुसरो ने संगीत के बारे में लिखा है-
"हिंदुस्तानी संगीत तो एक आग है, जो मन व आत्मा दोनों को जलाती है........।
भारतीय संगीत केवल इंसानों को ही नहीं, बल्कि पशुओं को भी मंत्रमुग्ध कर देता है...
इस संगीत की ध्वनि जब अरब पहुंचती है, तो बगदाद व मिस्र के गाने वालों की जुबां ख़ामोश हो जाती है......।
खुसरो ने अनेक वाद्ययंत्रों के आविष्कार में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वीणा भारत का पुराना वाद्य था। उन्होंने उसी के आधार पर तीन तारों का "सेहतार" बनाया जो आगे चल कर सितार बना। वाद्ययंत्रों के क्षेत्र में होने वाले इन रचनात्मक परिवर्तनों के फलस्वरूप भारतीय संगीत के दोनों पक्षों को लोकप्रियता मिली।
"ढोलक" व "तबला" को भी खुसरो का ही आविष्कार माना जाता है। हमारे पास वाद्ययंत्र के रूप में पखावज था। यह थोड़ा लंबा होने के कारण जरा असुविधाजनक था। खुसरो ने इसे दो भागों में विभाजित करके 'तबले' का रूप दिया।
पखावज के लघु रूप में 'ढोलक' भी खुसरो की ही देन है। कव्वाली की सारी रौनक़ इसी से तो जमती है।
Compiled By
Pawan Raj Singh
Courtesy: सूफी सन्त अमीर ख़ुसरो व् उनकी शायरी
*औलिया(हजरत निजामुद्दीन औलिया) चिश्ती सिलसिले के सूफ़ी संत
वाद्य व गेय(गायन) दोनों ही क्षेत्रों में संगीत को नई ऊंचाईयों तक ले जाने वाले खुसरो एक महान संगीतकार भी थे। यदि हम कहें कि वे एक अच्छे गायक और संगीतशास्त्री भी थे तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
अरबी-फारसी की सूक्तियों को भारतीय धुनों में पिरोने वाले खुसरो को अपने पीर निजामुद्दीन औलिया से "मफ़ता हुस्सामा" का खिताब मिला था। ख़ुसरो को "तराना" व "क़व्वाली" का आविष्कारक माना जाता है। वे ईरानी संगीत की भी अच्छी जानकारी रखते थे। ईरानी व भारतीय संगीत के समन्वय से अनेक समधुर राग-रागिनियां उन्होंने तैयार की। मुस्लिम राजाओं के दौर में खुसरो ने दोनों तरह का वातावरण देखा। कभी संगीत को पूरा प्रश्रय तो कभी घोर विरोध!.... किंतु धीरे-धीरे दिल्ली दरबार देश भर के जाने-माने संगीतज्ञों व गायक-गायिकाओं का अखाड़ा बनने लगा।खुसरो को जब भी अवसर मिला, उन्होंने अपनी संगीत-कला का भरपूर प्रदर्शन किया।
आज भी क़व्वाल खुसरो को ही अपना पहला उस्ताद मानते हैं। सालान उर्स पर मजारों पर खुसरो की क़व्वालियों का ऐसा समां बंधता है कि क्या कहने! खुसरो की एक विशेषता यह भी थी कि वे किसी भी ध्वनि को सुनते ही तुरंत राग-रागिनी में ढाल देते थे। इस विषय में एक प्रसंग कहा-सुना जाता है ; कहते हैं कि खुसरो ने रुई धुनने वाले धुनिए की तांत से निकलने वाली ध्वनि को ऐसे प्रस्तुत किया, जैसे कोई राग अलापा जा रहा हो।
"दर पये जाना जां, हम रफ्त, जां हम रफ्त, जां हम रफ्त, रफ़्त-रफ़्त जां हम रफ्त..."
"रागदर्पण" नामक पस्तक में खुसरो द्वारा बनाए गए निम्नलिखित रागों का उल्लेख मिलता है।
राग मुजिर गनम
जील्फ़ बास्तर्ज
एमन उश्शाक
फरगाना सर पर्दाह
मुवाफ़िक मुनअम
फ़रोदस्त आदि।
हिन्दुस्तानी संगीत को जन्म देने वाले ख़ुसरो के काम को जहां दरबारी प्रश्रय मिला, वहीँ सूफी फ़कीरों ने भी अपना आशीर्वाद दिया। उनके विषय में अकबर के दरबारी गायक लिखते हैं
तानसेन के तुम भू नायक ख़ुसरो
करत स्तुति गुण गायो रे
यदि खुसरो के संगीत प्रेम की चर्चा हो रही हो तो वसंत के गीतों को कैसे भुला सकते हैं। उन्होंने वसंत के गीतों को ख़ानक़ाह की रौनक बनाया। हिंदुओं का वसंत राग सुन कर खुसरो झूम उठे व हिंदी-फारसी के कई शेर रच डाले।
वे पीले वस्त्र पहन वसंत मनाने जा पहुंचे व *औलिया के सामने जाकर बोले;
"अश्क रेज़ आमदस्त अब्र बहार
साकिया गुल बरेज़ो-बादः बयार"
(बहार रूपी बादल आंसू बहाने आ रहे हैं। साकी फूल बरसा और मदिरा पिला)
औलिया भी मुस्कुराने लगे और फिर दिल्ली की दरगाहों में वसंत का मेला लगने लगा।
अपने ग्रंथ "नूर-सिपहर" में खुसरो ने संगीत के बारे में लिखा है-
"हिंदुस्तानी संगीत तो एक आग है, जो मन व आत्मा दोनों को जलाती है........।
भारतीय संगीत केवल इंसानों को ही नहीं, बल्कि पशुओं को भी मंत्रमुग्ध कर देता है...
इस संगीत की ध्वनि जब अरब पहुंचती है, तो बगदाद व मिस्र के गाने वालों की जुबां ख़ामोश हो जाती है......।
खुसरो ने अनेक वाद्ययंत्रों के आविष्कार में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वीणा भारत का पुराना वाद्य था। उन्होंने उसी के आधार पर तीन तारों का "सेहतार" बनाया जो आगे चल कर सितार बना। वाद्ययंत्रों के क्षेत्र में होने वाले इन रचनात्मक परिवर्तनों के फलस्वरूप भारतीय संगीत के दोनों पक्षों को लोकप्रियता मिली।
"ढोलक" व "तबला" को भी खुसरो का ही आविष्कार माना जाता है। हमारे पास वाद्ययंत्र के रूप में पखावज था। यह थोड़ा लंबा होने के कारण जरा असुविधाजनक था। खुसरो ने इसे दो भागों में विभाजित करके 'तबले' का रूप दिया।
पखावज के लघु रूप में 'ढोलक' भी खुसरो की ही देन है। कव्वाली की सारी रौनक़ इसी से तो जमती है।
Compiled By
Pawan Raj Singh
Courtesy: सूफी सन्त अमीर ख़ुसरो व् उनकी शायरी
*औलिया(हजरत निजामुद्दीन औलिया) चिश्ती सिलसिले के सूफ़ी संत
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