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मंगलवार, 30 जून 2020

कबीर दीवानगी या सीख


जिंदगी की सीख क्या है? हमें किन से अच्छी बातों को सीखना चाहिए? इन सवालों का जवाब हमें पुरानी किताबों से मिलता है किताबों में जिंदगी का जवाब होता है। मैंने
कुछ किताबें पढ़ीं और कुछ मस्तों दीवानों के साथ रहा, और फिर ये दीवानगी पाई। उन्हीं में इक दीवाना या समझ वाला जिसे कहते हैं वो है  कबीर, कबीर को कबीर उनके जीवन ने नहीं उनकी सिखाई या बताई सिखों (शिक्षाओं) ने बनाया आम आदमी को आम भाषा में समझाने का फ़न जैसे कबीर आता था या यूँ कहा जाए महारत हासिल कर रखी थी। एकलव्य जैसे तो विद्यार्थी समाज में बिरले ही पाये जाते हैं क्यों न कोई ऐसी तकनीक सोच ली जाय जिससे जो न सीखना चाहे उस तक या जो दूर देश में बैठा उस तक यह ज्ञान पहुँच जाये। यही हुआ आम शिक्षाओं के साथ गूढ़ से गूढ़ बातें कबीर ने हमें समझाई और आज भी उनका उपयोग कर जीवन में सफलता पा लेते हैं कहाँ धैर्य की आवश्यकता कहाँ शीघ्रता करनी है।
 साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।

अर्थ: इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है। जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।


तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।

अर्थ: कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है। यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है !


धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।

अर्थ: मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है। अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु  आने पर ही लगेगा !


माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।

अर्थ: कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या  फेरो।

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।

अर्थ: सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए। तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का।

दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।

अर्थ: यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह  दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत।

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।

अर्थ: जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते  हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।


बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।

अर्थ: यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।

अर्थ: न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।
संकलन
पवन राज सिंह

सोमवार, 30 मार्च 2020

उम्मीद बाकी है.....

मायूस हैं पर इक उम्मीद भी है
हैं उजाले कहीं गुम इस अँधेरे में

होकर रहेगी सुबह कुछ वक्त और
कुछ और वक्त का इन्तजार है

हमें और न सता सकेगा ये मंजर
हम उठ खड़े होंगे अपने पाँव पर

हमें उम्मीद है हमारे रहनुमा पर
हमें उम्मीद है हमारे तबीबों पर

ये रुत है खिज़ाँ की जाएगी जरूर
मौसम बहारों के फिर से आएंगे

खिलेंगे गुल बागों में फिर से.....
महकेगी चमन की हर इक गली

भँवरे फिर से गुनगुनाएँगे......
कोयल कूकेगी, पंछी फिर चहकेंगे

आज हारे हुए से हैं हम इससे....
कल इस अज़ाब से जीत जाएंगे

उम्मीद रखो उम्मीद पे ही यारों
उम्मीद पर ही दुनिया कायम है

होंसला कम न होने पाये अपना
कहीं कोई मायूस न होने पाये

मायूस हैं पर इक उम्मीद बाकी है
उम्मीद बाकी है
उम्मीद बाकी है.......जीत जाएंगे
~पवन राज सिंह

गुरुवार, 16 जनवरी 2020

बोरी कम्बल का किस्सा

बात उस जमाने की है जब अपनी रूह ने ख़ुद को ये समझाना शुरू किया था, की हम किस लिए इस दुनिया में आए हैं। नफ़्स का आधा हिस्सा जो पाक था वो इसे समझ चुका था और आधे हिस्से पर दुनिया और दुनियावी परेशानियां हावी थी। हालांकि दुनियावी नफ़्सानीयत नाम-लेवा ही थी। उस्ताद लोगों ने इस तरह का ज़ाम पिला दिया था की जिसके असर से आँखों के आगे का पर्दा उठ चूका था। आसपास का माहौल इतना दुनियावी था की जिसकी इन्तेहा नहीं है। ऐश आराम की जिंदगी दो चार चपरासी एक आवाज पर दौड़े आते, हद यहां तक थी की उठकर पानी तक नहीं पीने दिया जाता था। ये मकाम भी उस दुनियावी मेहनत का था जो एक आम आदमी पाना चाहता है, जिंदगी से जो कुछ हासिल करना था वह सब हासिल था। उसी दौर में एक सूफ़ी और दुनियावी जंग दिखावे जद्दो-जहद में ऐसा कुछ दिखाई दे जाना चोंका देने वाला लगता है। सिर्फ बोरी और कम्बल पर लालच करने वाले एक बुजुर्ग से मुलाक़ात हुई। दिखने में बिलकुल पतले दुबले और न कपड़े पहनने की सुध न ढंग से रहने की कोई तमन्ना ख्वाहिश। दुनियावी नजर का आदमी तो ऐसे शख्स से कोसोँ दूर से चला जाए, शरीयत के पाबन्द लोग भी इस गन्दगी में रहने वाले को तरजीह नहीं देते। हम उस जमाने में बाबा बुल्लेशाह की काफियां गाते जहां इक बार तो दो चार लोग इकट्ठा हो जाते और देखते सोचते यार ये भी सही आदमी है। उसी मस्तानगी में हमें वो बुजुर्ग कहीँ से भी बुरा न लगा रोज फिर आना जाना मिलना मिलाना रहता। लोग उस बुजुर्ग शख्स को बोरी-कम्बल ही कहते और कहते मेंटल भी है, पर हाँ जिस के लिए दुआ कर दे उसका काम हो जाता है। बाबा बड़े सयाने बुजुर्गों में रहे हुए थे वो जानते थे साफ़ सुथरा रहूँगा तो लोग पीछा नहीं छोड़ेंगे किस न किसी लालच में आते रहेंगे। बाबा बड़ी गन्दगी में रहते कोई आने की इच्छा नहीं करता और उनकी सिक्युरिटी में रहता कालू नाम का इक कुत्ता जो की किसी मुवक्किल से कम न था, बाबा की चप्पल लुंगी कम्बल बोरी कुछ न कुछ मुंह में लिए बाबा को देने जाता रहता। जब कभी बाबा खाना खाते तो उसी बरतन में उनका कुत्ता भी उनके साथ ही खा रहा होता। कभी बाबा उसका तकिया लगाये लेते मिलते या कभी वो बाबा के ऊपर सोया हुआ नजर आता, कहीं जाते तो दोनों साथ ही जाते कहीं से आते तो दोनों साथ ही आते।

बाबा से जब पहली मुलाक़ात करी तो कहा बोरी कम्बल दे। तो किसी जानकार के हाथों इक बोरी इक कम्बल और कुर्ता लुंगी बाबा के लिए मंगवाए और बाबा बड़े खुश हुए और खूब दुआएँ दी। फिर आना जाना लगा रहा जब मैं जाता उसी वक्त वो चाय का इन्तजार कर रहे होते या अपनी चाय से कुछ हिस्सा मेरे लिए भेजते।

वक्त गुजरता गया और कई बुजुर्गों से मुलाक़ात होती रही और इक दिन बाबा का विसाल हो गया फिर ये बात उनके कुत्ते पर बहुत भारी गुजरी अपने सर से किसी सरपरस्त का हाथ उठ जाना क्या होता है उस कुत्ते न इंसानों को ये सबक सिखाया उस दिन से सभी उस कुत्ते को खुश करने के लिए कुछ न कुछ लाते पर उसके आँख से पानी नहीं रुका और फिर इक रोज वो इक कुत्ते को लाया जिसका नाम हम लोगों ने भूरी  रक्खा और अपनी ड्यूटी उस नए कुत्ते को सौंपकर बाबा का कुत्ता गायब हो गया। सिर्फ दो महीने वो दिखा उस जगह जहाँ बाबा रहते थे।
ये किस्सा ऐसे तो बड़ा लम्बा है पर जितना जाहिर कर सकता था मैंने इसे लिखने की कोशीश की है।
~पवन राज सिंह

मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

कहने में हिचक तो रहा हूँ पर .......

आज 31 दिसम्बर का दिन है अंग्रेजी परम्परा के अनुसार आज साल का आखिरी दिन है, क्योंकि जिंदगी पिछले 200-300 बरस से अंग्रेजियत में गुजर रही है। हर मुल्क के हर आदमी को नए जमाने की हवा अपने आगोश में ले रही है। अलग अलग तहजीबों, अलग अलग मुल्कों के अपने अपने चलन जो जीने के थे वो रफ़्ता रफ़्ता कम होते चले गए या नई पीढ़ी ने पुरानी पीढ़ी की परम्पराओं की चादरों को पुराने संदूकों में तह करके रख दिया और नया खोजने की तलाश में अंग्रेजियत का जामा ओढ़ने की होड़ में इसे हर तरह से मुकम्मल समझ लिया। खैर, अब इसी की बात की जाये इसी की लाइन पर या कदमों पर कदम-ताल की जाये तो मुद्दआ ये है, इस साल के आक्सीजन सलेंडर में कुछ ही घण्टों का आक्सीजन बचा है, जिसमें हर शख्स हर एक उस ग़म को भुला देना चाहता है जो दिन रात उसे घेरे रहता है, कहीं न कहीं किसी न किसी दे हल्की सी मुस्कान भी मिली हो, ऐसे छोटे छोटे हसीन लम्हों का जहन में पिरोकर ख़ुशी का लाव-लश्कर अपने दिल में लिए सभी इस साल को अलविदा कहना चाहते हैं। नयी उम्मीदों और नए ख़्वाबों की ताबीर के लिए नए साल का सुनहरा चेहरा देखने को हर कोई उसी भीड़ का हिस्सा है जो आज से ज्यादा या यूँ कहें इस साल से ज्यादा पा लेना चाहते हैं।
 जिंदगी अपनी करवटों का खेल खेलती रहती है आदमी की सोच ऊपर वाले के मुकाबले कम है, ऊपर बैठ कर वो जिस तरह के खेल खेलता है उसका इल्म इंसान को न आदम के जमाने में था न आज के जमाने में है, पर जमाना प्रोफेशनल और लिखा-पढ़ा हुए जा रहा है। इंसान को जो तरबियत मिल रही है वो ऐसी है की तुम सब कुछ कर सकते हो।  किसी के सहारे या जरिया होने का या किसी का शुक्रिया या किसी साथ लेने का या निभाने का सबक आज के वक्त की यूनिवर्सिटीज में नहीं सिखाया जाता। सिखाया जाता है  वो ये है जो कुछ है सो तुम्हारे ही हाथ में है। तुम तुम कर कर के आज की पीढ़ी को इतना खुदगर्ज़ कर दिया है की बस चन्द और वक्त के बाद इंसान इंसान को देखना, पसन्द करना छोड़ देगा, तो ये हाल हैं इस जमाने के।
अच्छा इस साल और नए साल के इस मुबारक मौके के बाद क्या होगा, लोग ये जानते हैं जिंदगी में जो भी हाजिर-ए-हालात हैं वो बदलने वाले नहीं हैं।

पर फिर भी भीड़ का हिस्सा बनना है दिल के बहलाने के लिए कोई मुद्दआ बेवजह ही सही होना चाहिए। मैं कुछ कुछ इसी भीड़ में हिस्सा हूँ क्योंकि इसी दौर में हयात मैंने भी पाई है, पर कुछ बातें जो बुजुर्गों के कदमों में बैठकर सीखीं है उन्हें इशारे इशारे में लिख रहा हूँ। यूँ नहीं है के सभी कुछ बुरा है इस दौर का पर ये दौर हमसे हमारी जड़ों के जुड़ने से दूर करता है। नए दौर और पुराने दौर में कोई जुड़ाव की बात हो कोई ऐसा केमिकल फार्मूला हो जो इस केमिकल लोचे को खत्म कर सके, इसी उम्मीद के साथ अपनी कलम को इस मकाम और आराम करने की खातिर रोकता हूँ।

कहने में हिचक तो रहा हूँ पर .......आप सभी को नए साल की मुबारकबाद पहले ही से....
~पवन राज सिंह

महबूब का तमाशा

अब वो ख्वाबों में भी अक्सर नहीं आता जो,
हरदम जहन के पैरों में एक बेड़ी सा बन्धा रहता था। जब मैं उसे तवज्जो नहीं भी देता
 तो वो कदमों में अटक कर मेरे जहन को मुँह
के बल गिरा देता था और अपने वजूद को मेरे
ज़हन में याद कराता रहता। वो महबूब जो इस दिल को तोड़ गया, वो ही जहन में इस तरह बस जाता है। घूमता रहता है दिन के हर पल में और रात के ख्वाबों की दुनिया में, इस
तरह की इक तरफ़ा मुहब्बतें बहुत दिनों तक
सताती हैं। इक अच्छे नेक दिल इंसान को
मुहब्बत का छोटासा प्यार भरा सफर, इक लम्हे
के भी ख्वाब के छोटे से हिस्से जैसा नसीब
होता है। उसको खेंच कर जब जहन लम्बा
दरिया या सागर सा कर दे और फिर इस पहाड़
को सर मारने से भी ये गम का नारियल न फूटे, तो ऐसा जानो कि वो इक मुहब्बत का धोका तुम्हारे अंदर इक आतिश पैदा करने वाला है।
      कुछ सालों ये याद, ये तड़प जहन को परेशां रखती है। फिर जब उस इन्तजार से जब जी उक्ता जाता है।
तो वो इंसान के कद और तमीज के बदलने
का ऐसा वक्त होता है जब सोना भी कुंदन सा
निखर जाता है। आपको ये महसूस हुआ तो
समझो इस रास्ते के सफर की हद में इक
कलन्दर या दार्शनिक है और तुम वो शख़्स
बनने की शुरुआत पर हो।
अब वो ख्वाबों में भी नहीं आता  "महबूब का तमाशा"

~पवन राज सिंह


मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

नग्मा ए ख़ुसरो Part...1


बहुभाषाविद् अमीर खुसरो ने फ़ारसी, अरबी, तुर्की व हिंदी में अनेक रचनाएं तैयार की। फारसी साहित्य में इन्हें आदर-मान की दृष्टि से देखा जाता है।
मिर्जा गालिब खुसरो को मान देते हुए कहते हैं :
"गालिब मेरे कलाम में क्योंकर न मज़ा हो।
पीता हूं धो के खुसरुए शीरीं सुखन के पांव॥"

खुसरो ने कई लाख कलाम कहे। उनकी साहित्यिक प्रतिभा व उदात्त कल्पनाशक्ति अतुलनीय है।
खसरो के समकालीन इतिहासकार बरनी ने भी कहा है कि खुसरो की सभी रचनाएं रखने के लिए एक पुस्तकालय की आवश्यकता होगी।
" फ़िरदौसी, सादी, अनवरी , अर्फी, नज़ीरी आदि अक़लीमे सुखन के बादशाह हैं, किंतु उनकी सीमा एक अकलाम से आगे नहीं बढ़ती।
फिरदौसी मसनवी से आगे नहीं बढ़ सकता, सादी क़सीदे को हाथ नहीं लगा सकते। अनवरी मसनवी व ग़ज़ल को नहीं छू सकता। हाफिज़, उफ़्फी, नजीरी गज़ल के दायरे से बाहर नहीं निकल सकते, परंतु अमीर खुसरो की
साहित्यिक सत्ता में ग़ज़ल, रुबाई, क़सीदा व मसनवीं सब कुछ दाख़िल है व काव्यकला की छोटी-मोटी विधाएं अर्थात् तज़मीन, मुस्तज़ाद सनाय व हादाय की तो गिनती ही नहीं है।
शोधकर्ताओं ने भारत, तुर्की, मिस्र का यूरोप के पुस्तकालयों से खुसरो की
निम्नलिखित रचनाएं खोज निकाली हैं।
1. तुहफ तुस्सिग्र
2. वस्तुल हयात
3. गुर्रतल कमाल
4. बक़ीय नक़ीय
5. निहायतुल कमाल
6. किरानुस्सादैन
7. मुफ़ताहुल फुतूह
8. ख़िज़र ख़ां व देवल रानी
9. नूह सिपहर
10. तुगलक़नामा
11.मतला-उल-अनवार
12. शीरीं व खुसरो
13. मजनू लैला
14. हश्ते-बिहिश्त
15. आइन-ए-सिकंदरी
16. मजमूआ असन वयात
17. मजमूआ रुबाइयत
18. कुल्लियात
19. कसीदा अमीर खुसरो
20. मुश्तमिल वर दास्तां शाहनामा
21. एजाज़े खुसरवी
22. इंशा-ए-खुसरवी
23. रफ्फ़ाइनुल फतूह
24. निसावे बदीउल अजायब व निसाबे मसल्लस
25. अफ-ज़लुल फ़वाइद
26. बाज़नामा
27. क़िस्सा चहार दरवेश
28. मर्रातुस्स फ़ा
29. शहर आशोब
30. ताजुल फ़तह
31. तारीखे दिल्ली
32. मानकिबे हिंद
33. हालात कन्हैया व कृष्न
34. मक्तूबाते अमीर खुसरो
35. जवाहरूल बहर
36. मकाला तारीखुल खुलफ़ा
37. राहतुल मुहिबदीन
33. रिसाला अब्यात बहस
39. शगूफे बयान
40. तराना हिंदी
41. अस्पनामा
42. मसनवी शिकायतनामा मोमिनपुर
43. मनाजाते खुसरो
44. मसनवी शिकायतनामा मोमिनपुर पटियाली
45. वाहरल अवर
(अमीर खुसरो व उनका हिंदी साहित्य
भालानाथ तिवारी से साभार)
Part ....1
Compiled By :Pawan Raj Singh
Courtesy:अमीर ख़ुसरो व् उनकी शायरी

माँ और उसकी पेंशन का दिन


हर परिवार की अपनी इक कहानी या जीवन के क्षण होते हैं, जिन्हें पारिवारिक जन ही महसूस कर सकते हैं,
बाबू जी के चले जाने के बाद माँ को फेमिली पेंशन मिलने लगी, माँ भी उम्र दराज हो चली हैं, पर उनको महीने में इक रोज बैंक जाने का बड़ा चाव रहता है। यूँ तो माँ महीने भर अपने नित्य काम-काज में ही व्यस्त रहती हैं मुझे भी कुछ नहीं कहती, सामान्य बातें जो माँ बेटों में रहती हैं वही होती हैं हम दोनों के बीच। किन्तु पेंशन वाले दिन से पहले ही वह उत्साहित हो कह उठती है "पासबुक छपाने चलेंगे"। उसे पेंशन से ज्यादा उस मशीन से मिलना अच्छा लगता है। जो बिना किसी आदमी के ख़ुद पासबुक छापती है।
आजकल बैंकों में पासबुक्स में एंट्री करने की मशीनें लगी हैं, जो पास बुक के बार कोड (barcode) को रीड करके ग्राहक और उसके अकाउंट को पहचानती हैं, फिर लास्ट प्रिंटेड पेज को देखकर ओटीमेटिक्ली पासबुक की आगे की एंट्रियों को छाप देती है। ऐसी मशीनें और उनकी कार्यप्रणाली देखकर माँ अचंभित और उत्साह से कह उठती है, "क्या नया जमाना आ गया आदमी की कोई आवश्यकता ही नहीं किसी कार्य को मशीनें स्वतः ही सम्पन्न कर देती हैं।"
मैं माँ को अपने साथ बैंक ले जाता हूँ जहाँ स्लिप भरने से पेंशन लेने तक उसकी आँखें हर होने वाली घटना को देखती और सीखती रहती है। उन आँखों में एक नवीन शिष्य जैसी उम्मीदें होती है कि अगली बार जब मैं यहां आऊँ तो यह कार्य जो मैंने सीख लिया है कैसे होता है, तो उसे स्वतः कर पाऊं। किन्तु हर बार वह उसी नवीनता में चली जाती है, पुराने सारे अनुभवों को भुला देती है। कुछ ख़ास बातें ही उसे याद रहती हैं। जैसे उस क्लर्क से नमस्ते करना जब पेंशन मिल जाती है और उस मैनेजर से भी जब वह पेंशन स्लिप को अप्रूव कर देता है। माँ इतना समझती है की किसी का शुक्रिया करने से वह भविष्य में याद रखता है सम्मान के बदले में अगली बार अधिक सम्मान या पहचान प्राप्त होती है। पैसा या धन की वास्तविक जीवन में इतनी महत्ता नहीं है जितना की जान पहचान की है। यह सदियों से चली आ रही भारतीय ग्रामीण परम्परा या पुरातन परम्परा की पहचान है जिसे माँ बताती रहती है।
पुरानी पीढ़ी और नई तकनीकों में जो आपसी मिलन है उसे पाठकों तक पहुँचाकर मुझे भी एक नया अनुभव एक उस पुल के जैसे महसूस होता है जिस पर चलकर इधर के लोग उधर उधर के लोग इधर आकर देखते हैं की नवीनता क्या है और पुरातन पथ कैसा है।
आप सभी का शुक्रिया
~पवन राज सिंह

कलाम 19

 दर्द-ए-इश्क़ दिल को दुखाता है बहुत विसाल-ए-यार अब याद आता है बहुत ज़ब्त से काम ले अ' रिंद-ए-खराब अब मयखाने में दौर-ए-ज़ाम आता है बहुत साक़ी...