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गुरुवार, 16 जनवरी 2020

बोरी कम्बल का किस्सा

बात उस जमाने की है जब अपनी रूह ने ख़ुद को ये समझाना शुरू किया था, की हम किस लिए इस दुनिया में आए हैं। नफ़्स का आधा हिस्सा जो पाक था वो इसे समझ चुका था और आधे हिस्से पर दुनिया और दुनियावी परेशानियां हावी थी। हालांकि दुनियावी नफ़्सानीयत नाम-लेवा ही थी। उस्ताद लोगों ने इस तरह का ज़ाम पिला दिया था की जिसके असर से आँखों के आगे का पर्दा उठ चूका था। आसपास का माहौल इतना दुनियावी था की जिसकी इन्तेहा नहीं है। ऐश आराम की जिंदगी दो चार चपरासी एक आवाज पर दौड़े आते, हद यहां तक थी की उठकर पानी तक नहीं पीने दिया जाता था। ये मकाम भी उस दुनियावी मेहनत का था जो एक आम आदमी पाना चाहता है, जिंदगी से जो कुछ हासिल करना था वह सब हासिल था। उसी दौर में एक सूफ़ी और दुनियावी जंग दिखावे जद्दो-जहद में ऐसा कुछ दिखाई दे जाना चोंका देने वाला लगता है। सिर्फ बोरी और कम्बल पर लालच करने वाले एक बुजुर्ग से मुलाक़ात हुई। दिखने में बिलकुल पतले दुबले और न कपड़े पहनने की सुध न ढंग से रहने की कोई तमन्ना ख्वाहिश। दुनियावी नजर का आदमी तो ऐसे शख्स से कोसोँ दूर से चला जाए, शरीयत के पाबन्द लोग भी इस गन्दगी में रहने वाले को तरजीह नहीं देते। हम उस जमाने में बाबा बुल्लेशाह की काफियां गाते जहां इक बार तो दो चार लोग इकट्ठा हो जाते और देखते सोचते यार ये भी सही आदमी है। उसी मस्तानगी में हमें वो बुजुर्ग कहीँ से भी बुरा न लगा रोज फिर आना जाना मिलना मिलाना रहता। लोग उस बुजुर्ग शख्स को बोरी-कम्बल ही कहते और कहते मेंटल भी है, पर हाँ जिस के लिए दुआ कर दे उसका काम हो जाता है। बाबा बड़े सयाने बुजुर्गों में रहे हुए थे वो जानते थे साफ़ सुथरा रहूँगा तो लोग पीछा नहीं छोड़ेंगे किस न किसी लालच में आते रहेंगे। बाबा बड़ी गन्दगी में रहते कोई आने की इच्छा नहीं करता और उनकी सिक्युरिटी में रहता कालू नाम का इक कुत्ता जो की किसी मुवक्किल से कम न था, बाबा की चप्पल लुंगी कम्बल बोरी कुछ न कुछ मुंह में लिए बाबा को देने जाता रहता। जब कभी बाबा खाना खाते तो उसी बरतन में उनका कुत्ता भी उनके साथ ही खा रहा होता। कभी बाबा उसका तकिया लगाये लेते मिलते या कभी वो बाबा के ऊपर सोया हुआ नजर आता, कहीं जाते तो दोनों साथ ही जाते कहीं से आते तो दोनों साथ ही आते।

बाबा से जब पहली मुलाक़ात करी तो कहा बोरी कम्बल दे। तो किसी जानकार के हाथों इक बोरी इक कम्बल और कुर्ता लुंगी बाबा के लिए मंगवाए और बाबा बड़े खुश हुए और खूब दुआएँ दी। फिर आना जाना लगा रहा जब मैं जाता उसी वक्त वो चाय का इन्तजार कर रहे होते या अपनी चाय से कुछ हिस्सा मेरे लिए भेजते।

वक्त गुजरता गया और कई बुजुर्गों से मुलाक़ात होती रही और इक दिन बाबा का विसाल हो गया फिर ये बात उनके कुत्ते पर बहुत भारी गुजरी अपने सर से किसी सरपरस्त का हाथ उठ जाना क्या होता है उस कुत्ते न इंसानों को ये सबक सिखाया उस दिन से सभी उस कुत्ते को खुश करने के लिए कुछ न कुछ लाते पर उसके आँख से पानी नहीं रुका और फिर इक रोज वो इक कुत्ते को लाया जिसका नाम हम लोगों ने भूरी  रक्खा और अपनी ड्यूटी उस नए कुत्ते को सौंपकर बाबा का कुत्ता गायब हो गया। सिर्फ दो महीने वो दिखा उस जगह जहाँ बाबा रहते थे।
ये किस्सा ऐसे तो बड़ा लम्बा है पर जितना जाहिर कर सकता था मैंने इसे लिखने की कोशीश की है।
~पवन राज सिंह

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