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रविवार, 15 दिसंबर 2019

इमाम साहब और उनका पान

जय सिंह के गले की घण्टी बन गया है, इमाम साहब का पान हर दो घण्टे या एक घण्टे में एक नया आशिक़ आ जाता है और ईमाम साहब के नाम से पान खरीद कर ले जाता है । मद्रासी पत्ते पर कत्थे और चुने के ऊपर देसी जर्दा और पिपरमेंट बस, छालिया(सुपारी) अलग से दूसरी पुड़िया में पैक होती है, अच्छा इस पान को भी यूँहीं नहीं खाया जाता इमाम साहब इस पान को अपने पास में जमीन पर खोलकर रख देते हैं। पान पर कत्था, चुना जब तक सूख नहीं जाता पान में पिपरमेंट और जर्दे का स्वाद रचता नहीं है। रही बात जयसिंह की तो जय सिंह खुद भी इक जमाने से इमाम साहब का आशिक है, मथुरा बृंदावन की धरती से 40/50 बरस पहले आकर शहर में पान का ठिया लगाया था, उस जमाने से ही इमाम साहब का आना जाना है। इमाम साहब खुद ख़ानदानी नवाबजादे हैं,और वक्त की आँधियों ने नवाबी भी छीन ली फिर अमीरी छिनी फिर रही सही आम सी जिंदगी भी, बरसों से बस्ती फकीरान में रहते रहते खुद भी फ़कीर हो गए हैं, खुद इमाम साहब का कहा है "मियाँ पैसे वाले होते तो इतनी मुहब्बत न मिलती, ये मुहब्बत तो सिर्फ गरीब बस्तियों में ही है। फ़कीर के माने दो होते हैं इक फ़कीर किसी गरीब आदमी को कहा जाता है, और इक वो होता है जो अपने क़ासे रखता तो सारी दौलत है पर दुनिया को लगता है ये मांगने वाला है। वो होती है असली फ़कीरी।"   ये बात बताते बताते इमाम साहब कोई शेर यूँ पढ़ देते हैं;

"गोया यूँ तो ख़ानदानी रईस थे
मगर जिंदगी फकीरों में गुजारी है"

तो जो उनकी ख़ानदानी रईसी है उसने पान का इक अदद शोक छुटने न दिया जिस जमाने जवां थे, उस जमाने में चौराहे पर जाकर पान के ठियों पर खड़े हो जाते, वालिदा ने क़ुरआन हाफ़िज बना दिया था, अपने बेटे को पर उर्दू और शायरी का शोक नया नया चढ़ा था जहन पर,  जिसकी हर रोज की खुराक चौराहे पर पान के ठियों पर ही मिलती, अब इस सोहबत ने शायरों के साथ रहने से पान का शौकीन भी बना दिया। शायरों को पान मुंह में दबाकर शेर कहने की जो आदत होती है,

हजारों मंज़िलें होंगी हजारों कारवां होंगे
बहारें हमको ढूंढेंगी न जाने हम कहाँ होंगे

क्या दमे-वस्ल कोई तेरा मेरी जान भरे
सेकड़ों मर गये इस राह में अरमान भरे

मुद्दतों गरचे रही पर्दे से बाहर लैला
बस सिवा केस के उसका कोई आशिक़ न हुआ

तू मगर वो है के जब तूने दिखाया जल्वा
तेरे दीवानों से कल को हो बयाबान भरे


किसी रहीस की महफ़िल का जिक्र क्या है 'अमीर'
ख़ुदा के घर भी न जाएंगे बिन बुलाए हुए

ये आदत इनको(इमाम साहब को) भी लगी जो अब भी जारी है, आपको जो भी शेर गज़ल कोई पढ़कर सूना भी देता एक बार भी तो याद हो जाती गज़ल हो या शेर हो तो याद हो जाता शेर भी। खैर वो जमाने गुजरे वक्त हुआ। अब बस मस्जिद से हुजरा और हुजरे से मस्जिद तक दौड़ होती है या कभी कभी तो वजू खाने से मस्जिद और मस्जिद से वजू खाने ही का सफर होता है, पर कहते हैं "मियाँ तुम जैसे लोग न हों या कोई आशिक न हो तो पान की खातिर 15 किलोमीटर तो जा सकता हूँ तो ये जयसिंह की दूकान कोनसी दूर है।"

अब ये किस्सा तमाम नहीं हुआ है, आज मेरे पढ़ने वालों को सिर्फ इस केरेक्टर इमाम साहब से मिलवाना था जो आज इस छोटी सी दास्ताँ-गोई में आप लोगों से तार्रुफ़ करवाने की मेरी कोशिश है।

~पवन राज सिंह
15-दिसम्बर

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

कलामे-अमीर ख़ुसरो :---काफ़िरे-इश्क़म मुसलमानी मरा दर कार नेस्त

काफ़िरे-इश्क़म मुसलमानी मरा दर कार नेस्त,
हर रगे मन तार गश्ता हाजते जुन्नार नेस्त

अज सरे बालीने मन बर ख़ेज़ ए बादाँ तबीब,
दर्द मन्द इश्क़ का दारो -- बख़ैर दीदार नेस्त

मा व इश्क़ यार अगर किब्ला गर दर बुतकदा,
आशिकान दोस्त रा बकुफ़्रो -- इमां कार नेस्त

ख़ल्क़ भी गोयद के ख़ुसरो बुत परस्ती भी कुनद,
आरे-आरे भी कुनम बा ख़लको  -- दुनिया कार नेस्त

तर्जुमा:
मैं इश्क़ का काफ़िर हूँ मुझे मुसलमानी नहीं चाहिए,
मेरी हर रग तार बन गई है मुझे जनेऊ भी नहीं चाहिए

ए नादान वैद्य! मेरे सिरहाने से उठ जा
जिसे इश्क़ का दर्द लगा हो उसके लिए प्यारे के दीदार के सिवा कोई चारा नहीं

हम हैं और प्रेमिका का प्रेम है चाहे काबा हो चाहे बुतखाना
प्रेमिका के प्रेमियों को कुफ्र और ईमान से कोई वास्ता नहीं होता

दुनिया कहती है कि ख़ुसरो मूर्ति पूजा करता है
हाँ-हाँ करता हूँ मेरा दूनिया के कोई सरोकार नहीं है

~अमीर ख़ुसरो
Compiled By :Pawan Raj Singh
Courtesy: (अमीर ख़ुसरो और उनकी शायरी)

आज का बयान

दो दिन हुए घर पर ही तशरीफ़ फर्मा हूँ, तबियत नासाज़ है और शहर में रजाई तोड़ सर्दी ने नाक में दम कर रखा है। कोई अगर मुझसा शायर होता तो माशूक के न निकलने पर ये कह उठता,
 न निकलो तुम तो जिंदगी दूभर होती जाती है.....
मन चलों की आँख की जकात निकल जाती है....
 खैर हुआ यूँ के सारे शहर को खबर लग गई की हम ईद का चाँद हो गए हैं। उस दौर की बात का अंदाज नहीं लगाया जा सकता जब न तार थे न ख़त लोग कबूतर के गले में दिल का हाल लिख भेज देते थे, या किसी इल्म से कोई खबर इधर से उधर होती होगी। रही बात आज के दौर हमारे इस ताजा मसले की दोस्तों ने मोबाइल और व्हाट्सएप्प पर पूछना शुरू कर दिया। क्या हुआ कहाँ हो सब खेरियत तो है, ये हाल हैं हमारे और हमारी दोस्ती के,

दिल दुःखी भी है वो इस बात से की आज से जश्ने-रेख़्ता भी दिल्ली में शुरू हो गया है, मैं चाहकर भी नहीं जा सका वहां पर कुछ मजबूरिये-हालात और कुछ सादगी हमारी।

कल फिर नया सूरज निकलेगा नई उम्मीदों के साथ और हम भी उम्मीद रखते हैं कल मीर अपनी महफ़िल में होंगे और मुरीदों दोस्तों की जो जो परेशानियां और दिल के हाल हैं सब सुने जाएंगे।

बुजुर्गों से भी मिले यही अरसा हुआ वो भी क्या सोचते होंगे ।चलो खैर कोई बात नहीं, मालिक ने जब आदम को बनाया तो मिट्टी से बनाया था, फितरती चाल रक्खी अब जब हम भी उसी राह पर चल रहे हैं तो फितरती तो होंगे ही।  कभी कोई गम सताएगा, कभी कोई ख़ुशी में शरीक होंगे। कभी सेहतियाब होंगे तो कभी बीमार होंगे। कभी गर्मी गमगीन करेगी तो कभी सर्द हवाएँ मकानों में कमरों में बन्द कर देगी।

कल एक बेहतर कल होगा और सभी इंसानियत की बेहतरी की दुआ के साथ......

~पवन राज सिंह


बुधवार, 11 दिसंबर 2019

कुछ शेर जिनका दूसरा मिसरा कहावत या मुहावरा हो गया

ऐसे बहुत से शायर हुए हैं, जिनका दूसरा मिसरा इतना मशहूर हुआ कि लोग पहले मिसरे को तो भूल ही गये। ऐसे ही चन्द उधारण यहाँ पेश हैं:-

"ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है,
वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है।"
- मिर्ज़ा रज़ा बर्क़

"भाँप ही लेंगे इशारा सर-ए-महफ़िल जो किया,
ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं।"
- माधव राम जौहर

"चल साथ कि हसरत दिल-ए-मरहूम से निकले,
आशिक़ का जनाज़ा है, ज़रा धूम से निकले।"
- मिर्ज़ा मोहम्मद अली फिदवी

"दिल के फफूले जल उठे सीने के दाग़ से,
इस घर को आग लग गई, घर के चराग़ से।"
- महताब राय ताबां

"ईद का दिन है, गले आज तो मिल ले ज़ालिम,
रस्म-ए-दुनिया भी है, मौक़ा भी है, दस्तूर भी है।"
- क़मर बदायूँनी

"क़ैस जंगल में अकेला ही मुझे जाने दो,
ख़ूब गुज़रेगी, जो मिल बैठेंगे दीवाने दो।"
- मियाँ दाद ख़ां सय्याह

'मीर' अमदन भी कोई मरता है,
जान है तो जहान है प्यारे।"
- मीर तक़ी मीर

"शब को मय ख़ूब पी, सुबह को तौबा कर ली,
रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई।"
- जलील मानिकपुरी

"शहर में अपने ये लैला ने मुनादी कर दी,
कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को।"
- शैख़ तुराब अली क़लंदर काकोरवी

"ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने,
लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई।"
- मुज़फ़्फ़र रज़्मी

Compiled :Pawan Raj Singh
Courtesy:Social Media

मंगलवार, 10 दिसंबर 2019

शायरों का इक किस्सा कैफ टोंकी और यावर टोंकी का


कैफ टोंकी और यावर टोंकी बहुत अच्छे मकबूल शायर हुए हैं टोंक शहर राजस्थान के।
टोंक इक जमाने से नवाबों और शायरों का शहर रहा है। अभी भी आलिम और फाजिल लोग टोंक में रह रहे हैं और ये दौर आगे भी चलता रहेगा। रही बात इन दो शायरों के एक किस्से की
मियाँ यावर टोंकी रास्ते से कहीं जा रहे थे ज़ि बड़ा उदास उदास था तबियत भी जरा नासाज थी देखा सामने से एक दोस्त शायर कैफ टोंकी भी सामने से आ रहे हैं,
नजरें मिली कैफ ने मियाँ असलामु-अलैकुम
यावर टोंकी साहब वालेकुम-सलाम कहकर मुसाफे के लिए हाथ बढ़ा दिया दोनों ने मुसाफा किया और यावर टोंकी साहब ने कहा यार कैफ जरा कुछ सुना दे तबियत बड़ी उदास है आज ज़ि भी नहीं लग रहा तेरे किसी शेर से चेहरे की मायूसी जाती रहे।
हाजिर जवाब कैफ टोंकी साहब ने शेर अर्ज किया; आप भी गौर कीजिए:-
"कैफ के हाथ में छतरी भी है, डण्डा भी है, तलवार भी है,
कैफ खाली ही नहीं है,साहिबे हथियार भी है।"
~कैफ टोंकी

"बुजुर्गों से सुना किस्सा
(पवन राज सिंह)"

ग्यारहवीं शरीफ खीर का तबर्रुक

ग्यारहवीं शरीफ हुजूर ग़ौसे-आज़म की फातेहा
बात का जिक्र शुरू कुछ दो हफ्ता पहले मैंने जैसे ही कहा; अबकी बार ग्यारहवीं शरीफ पर यारों दूध पर फातेहा दिलाने की सोच रहा हूँ। सर्दियों के दिन हैं गरम गरम दूध में मेवा डाल कर कोई 40-50 आदमियों राहगीरों को पिलाएंगे। इतने में पनोती बाबा (शराफ़त) ने टोकते हुए कहा "गुरु खीर करेंगे दोनों में डालकर खिलाएंगे तो ज्यादा लोगों को मिलेगे, तबर्रुक को ज्यादा तकसीम होना चाहिए। उसकी बात भी काबिले गौर थी, हाजी (पकैया) पास ही बैठा था उसने कहा उस्ताद बना तो दूंगा पर ग्यारहवीं शरीफ को मुझे कहीँ जाना है अगले दिन का रख लो, उसकी मजबूरी भी काबिले गौर थी। वहीद भाई (बुजुर्ग) से इशारे में पूछा तो इशारे में ही हाज़ी की बात में हामी का इशारा कर दिया सो तय हुआ, तारीख 10 दिसम्बर दिन मंगल दिन में अढ़ाई बजे पनोती को फोन लगाया वो 3 बजे हाजिर होने का कहकर फोन काटने की इजाजत मांगने लगा। फिर हाज़ी को फोन लगाया उसने कहा उस्ताद में तीन नम्बर(पकईया के सहायक का नाम)  की राह तक रहा हूँ आधा घण्टे में हाजिर होता हूँ। सो सभी 3 बजे जमा हुए पनोती बाबा (शराफ़त) सामान खरीदने गफूर (एक दोस्त) को ले गया और गुरु को भी ले गया।  सामान लाकर हाजी को सम्भलवा दिया। रियाज ने टाट पर बैठा मिला और टाट की बोरियों पर सभी लोगों ने महफ़िल जमा ली और दूसरी तरफ हाज़ी और तीन नम्बर ने अपना खीर बनाने का काम शुरू कर दिया। सिगड़ी की मंद आंच पर खीर पक रही थी और इधर महफिल में सूफियों के किस्से शुरू हो गए गुरु बातें कहते कहते एक दम से सोचने लगा "मनान (मुनान एक मुरीद का नाम) को फोन नहीं लगाया, जेब से फोन निकाला और मनान को लगाया लंगर लूटने के बाद आएगा या पहले, उधर से आवाज आई मगरिब की नमाज तक आ जाऊँगा उस्ताद। गुरु को सभी गुरु कहते हैं मगर मनान गुरु न कहकर उस्ताद ही कहता है। असर की नमाज खत्म होते होते सभी को खबर कर दी गई। मस्जिद में इमाम साहब के टिफिन भरने की ड्यूटी तक लगा दी गई। शाम ढलने लगी मगरिब की नमाज तक मनान और अकरम (मनान का दोस्त) आ गए खीर पक चुकी और अब ठण्डी करके घुटाई का काम जारी है। देखते ही देखते खीर सामने तैयार थी। सरकार ग़ौसे आजम दस्तगीर साहब की फातेहा खीर पर दी गई, उसके बाद सभी आये लोगों को खीर का तबर्रुक पनोती बाबा ने गफूर ने रियाज ने और तीन नम्बर ने बांटा, खीर मुहब्बत वाले लोगों ने मुहब्बत से बनवाई थी इसलिए सभी खाने वालों ने तारीफ़ की, वक़्त बीतते बीतते ईशा का वक्त हुआ और सभी लोगों ने अपनी अपनी राह पकड़ ली कुछ मस्जिद की और कुछ अपने काम से और कुछ अपने घर की और चले गए। सरकार ग़ौसे आज़म दुआओं से सबका भला हो इंसानियत का भला हो।

~पवन राज सिंह
10 दिसम्बर

संगीत और अमीर ख़ुसरो

अमीर ख़ुसरो एक महान संगीतज्ञ के रूप में जाने जाते हैं, सामान्य बोलचाल में उन्हें ख़ुसरो के नाम से जानते हैं,
वाद्य व गेय(गायन) दोनों ही क्षेत्रों में संगीत को नई ऊंचाईयों तक ले जाने वाले खुसरो एक महान संगीतकार भी थे। यदि हम कहें कि वे एक अच्छे गायक और संगीतशास्त्री भी थे तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
अरबी-फारसी की सूक्तियों को भारतीय धुनों में पिरोने वाले खुसरो को अपने पीर निजामुद्दीन औलिया से "मफ़ता हुस्सामा" का खिताब मिला था। ख़ुसरो को "तराना" व "क़व्वाली" का आविष्कारक माना जाता है। वे ईरानी संगीत की भी अच्छी जानकारी रखते थे।  ईरानी व भारतीय संगीत के समन्वय से अनेक समधुर राग-रागिनियां उन्होंने तैयार की। मुस्लिम राजाओं के दौर में खुसरो ने दोनों तरह का वातावरण देखा। कभी संगीत को पूरा प्रश्रय तो कभी घोर विरोध!.... किंतु धीरे-धीरे दिल्ली दरबार देश भर के जाने-माने संगीतज्ञों व गायक-गायिकाओं का अखाड़ा बनने लगा।खुसरो को जब भी अवसर मिला, उन्होंने अपनी संगीत-कला का भरपूर प्रदर्शन किया।

आज भी क़व्वाल खुसरो को ही अपना पहला उस्ताद मानते हैं। सालान उर्स पर मजारों पर खुसरो की क़व्वालियों का ऐसा समां बंधता है कि क्या कहने! खुसरो की एक विशेषता यह भी थी कि वे किसी भी ध्वनि को सुनते ही तुरंत राग-रागिनी में ढाल देते थे। इस विषय में एक प्रसंग कहा-सुना जाता है ; कहते हैं कि खुसरो ने रुई धुनने वाले धुनिए की तांत से निकलने वाली ध्वनि को ऐसे प्रस्तुत किया, जैसे कोई राग अलापा जा रहा हो।
"दर पये जाना जां, हम रफ्त, जां हम रफ्त, जां हम रफ्त, रफ़्त-रफ़्त जां हम रफ्त..."
"रागदर्पण" नामक पस्तक में खुसरो द्वारा बनाए गए निम्नलिखित रागों का उल्लेख मिलता है।
राग मुजिर         गनम
जील्फ़              बास्तर्ज
एमन                उश्शाक
फरगाना           सर पर्दाह
मुवाफ़िक         मुनअम
फ़रोदस्त आदि।

हिन्दुस्तानी संगीत को जन्म देने वाले ख़ुसरो के काम को जहां दरबारी प्रश्रय मिला, वहीँ सूफी फ़कीरों ने भी अपना आशीर्वाद दिया। उनके विषय में अकबर के दरबारी गायक लिखते हैं
तानसेन के तुम भू नायक ख़ुसरो
करत    स्तुति    गुण    गायो   रे

यदि खुसरो के संगीत प्रेम की चर्चा हो रही हो तो वसंत के गीतों को कैसे भुला सकते हैं। उन्होंने वसंत के गीतों को ख़ानक़ाह की रौनक बनाया। हिंदुओं का वसंत राग सुन कर खुसरो झूम उठे व हिंदी-फारसी के कई शेर रच डाले।
वे पीले वस्त्र पहन वसंत मनाने जा पहुंचे व *औलिया के सामने जाकर बोले;
"अश्क रेज़ आमदस्त अब्र बहार
साकिया गुल बरेज़ो-बादः बयार"
(बहार रूपी बादल आंसू बहाने आ रहे हैं। साकी फूल बरसा और मदिरा पिला)
औलिया भी मुस्कुराने लगे और फिर दिल्ली की दरगाहों में वसंत का मेला लगने लगा।

अपने ग्रंथ "नूर-सिपहर" में खुसरो ने संगीत के बारे में लिखा है-
"हिंदुस्तानी संगीत तो एक आग है, जो मन व आत्मा दोनों को जलाती है........।
भारतीय संगीत केवल इंसानों को ही नहीं, बल्कि पशुओं को भी मंत्रमुग्ध कर देता है...
इस संगीत की ध्वनि जब अरब पहुंचती है, तो बगदाद व मिस्र के गाने वालों की जुबां ख़ामोश हो जाती है......।

खुसरो ने अनेक वाद्ययंत्रों के आविष्कार में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वीणा भारत का पुराना वाद्य था। उन्होंने उसी के आधार पर तीन तारों का "सेहतार" बनाया जो आगे चल कर सितार बना। वाद्ययंत्रों के क्षेत्र में होने वाले इन रचनात्मक परिवर्तनों के फलस्वरूप भारतीय संगीत के दोनों पक्षों को लोकप्रियता मिली।
"ढोलक" व "तबला" को भी खुसरो का ही आविष्कार माना जाता है। हमारे पास वाद्ययंत्र के रूप में पखावज था। यह थोड़ा लंबा होने के कारण जरा असुविधाजनक था। खुसरो ने इसे दो भागों में विभाजित करके 'तबले' का रूप दिया।
पखावज के लघु रूप में 'ढोलक' भी खुसरो की ही देन है। कव्वाली की सारी रौनक़ इसी से तो जमती है।
Compiled By
Pawan Raj Singh
Courtesy: सूफी सन्त अमीर ख़ुसरो व् उनकी शायरी

*औलिया(हजरत निजामुद्दीन औलिया) चिश्ती सिलसिले के सूफ़ी संत

कलाम 19

 दर्द-ए-इश्क़ दिल को दुखाता है बहुत विसाल-ए-यार अब याद आता है बहुत ज़ब्त से काम ले अ' रिंद-ए-खराब अब मयखाने में दौर-ए-ज़ाम आता है बहुत साक़ी...