दर्द-ए-इश्क़ दिल को दुखाता है बहुत
विसाल-ए-यार अब याद आता है बहुत
ज़ब्त से काम ले अ' रिंद-ए-खराब अब
मयखाने में दौर-ए-ज़ाम आता है बहुत
साक़ी का काम ज़ाम-ए-मय पिलाना है
माना, उसको तेरा फ़िक्र सताता है बहुत
रहती है फ़िक्र तूर को पिघल जाऊँगा मैं
मूसा को बंदगी का ख़याल आता है बहुत
रातों को जागने का हुनर आता है किसे
सोते हुओं को रात कोन जगाता है बहुत
गुज़रे कई जमाने 'राज वो दरवेश न देखा
उसका मुरीद उसके किस्से सुनाता है बहुत
~पवन राज सिंह