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शनिवार, 22 अक्टूबर 2022

कलाम 19

 दर्द-ए-इश्क़ दिल को दुखाता है बहुत

विसाल-ए-यार अब याद आता है बहुत


ज़ब्त से काम ले अ' रिंद-ए-खराब अब

मयखाने में दौर-ए-ज़ाम आता है बहुत


साक़ी का काम ज़ाम-ए-मय पिलाना है

माना, उसको तेरा फ़िक्र सताता है बहुत


रहती है फ़िक्र तूर को  पिघल जाऊँगा मैं

मूसा को बंदगी का ख़याल आता है बहुत


रातों को जागने का हुनर आता है किसे

सोते हुओं को रात  कोन जगाता है बहुत


गुज़रे कई जमाने 'राज वो दरवेश न देखा

उसका मुरीद उसके किस्से सुनाता है बहुत

~पवन राज सिंह

कलाम 18

 संग दिल आशिक भी यहां पिघल जाते हैं

जब कभी वो अपने पर्दे से निकल आते हैं


आइना क्या समझेगा हुस्न के जल्वों को

तीर-ए-नज़र ज़िगर के पार उतर जाते हैं 


घटायें काली जोश खाकर उमड़ आयी हों

जब कभी उनके बंधे गेसुं बिखर जाते हैं


फिर सोग में डूबके क़ेस सेहरां को निकला

लैला के अरमान मिलने को मचल जाते हैं


उसकी रहमत का दरवाजा खुला है हरदम

लोग इबादत की कतारो में नज़र आते हैं


हैं 'राज उस सनम कूचे के बहुत से निहाँ

यार से मिलने को आशिक़ पहुँच जाते हैं

~पवन राज सिंह

कलाम 17

 ये सितम तो दीवाने पे कम से कम ढा जाईये

जा तो रहे हैं आप कम से कम मुस्कुरा जाइये


उदू से मिलके गले नयी मुहब्बत में हैं गिरफ्तार

पुराने आशिक़ को कम से कम पहचान जाइये


ढूंड लेंगे ये दीवाने फिर से इक हसीन कातिल

मुहब्बत भरे खतों को कम से कम मिटा जाइये


दर्द-ए-इश्क़ मिटाये तो मिट जाएंगे ये दिल जले

ये परवाने की शमआ' कम से कम जला जाइये


हो रहे हैं हमारे इश्क़ के चरचे गरम बाज़ारों में

इस फैलती आग को कम से कम बुझा जाइये


ये राज' न कहना किसी से ये है राज़-ए-इश्क़

दिल-ए-बेताब को कम से कम समझा जाइये

~पवन राज सिंह



कलाम 16

 आतिश-ए-दिल को बुझायें तो बुझायें कैसे 

इश्क़ की दास्ताँ को सुनायें तो सुनायें कैसे 


तेरे फ़िराक का ग़म अब मिटता नहीं सनम

अश्क़ आँखों के सुखायें तो सुखायें कैसे


इश्क़ की कश्ती तो अभी साहिल से दूर है 

आशिक़ को डूबने से बचायें तो बचायें कैसे


रौशनी क्या है नज़्ज़ारा किसे कहते हैं लोग

चराग़-ए-आरजू को जलायें तो जलायें कैसे


इक फूल भी न उग सका उस वीराने दिल में 

सहरा को बाग़-ए-गुल बनायें तो बनायें कैसे


राज' क्या जाने रहता है कहाँ,  दिलबर मेरा

कूचा-ए-यार का पता लगायें तो लगायें कैसे 

~पवन राज सिंह

कलाम 15

 जिसने जो बांटा ख़ुदा से वो ही अता हुआ

इश्क़ बांटा खूब हमने हमें इश्क़ अता हुआ


रहता है बनके फ़क़ीर बयाबाँ में वो अमीर

अपने निज़ाम के कदमों पर वो फ़ना हुआ


ज़र्रे से बना पत्थर पत्थर से फिर गौहर हुआ

पीरों के घर अतफ़ाल नहीं पीर ही पैदा हुआ


हस्ती मिटाये बगैर,   बढ़ती नहीं कीमत यहाँ

पीतल मिला जब कीमिया में तो सोना हुआ


गर्दिश में जिसकी लगे हुए हैं शम्स-ओ-कमर

काशी में सनमखाना तो मक्के में काबा हुआ


ज़न्नत-ओ-दोज़ख़ के चक्कर में न पडो अभी

जिस ने रखा ईमान को ताजा वो मुसलमाँ हुआ


हासिल हों करामातें कैसे ये राज' कोन कहे

करामातों का खज़ाना दरवेश का क़ासा हुआ

~पवन राज सिंह


कलाम 14

 वाइज़ तुझे फिकर है क्यों सारे जहान की

रिंदों को मिल गयी है दवा हर परेशान की


बेफिक्र हुए जाता है मयखाने से हर कोई 

साक़ी के ज़ाम में है सिफ़त आसमान की


मुहब्बत से मिल रहे हैं रकीबों से भी गले

तारीफ़ क्या करूँ...साक़ी तेरी दूकान की


महफ़िल में तेरी झूमके फिर लोट आते हैं

झुमके अपनी धुन में लोटके,  आ जाते हैं

बातें मीठी लगती हैं बहुत तेरी जबान की


वादे का तेरे एतबार उनको है,   इस कदर

आ गये हैं वो इज्जत गंवा के खानदान की


खोजती हैं यार के दर को रिंदों की टोलियां

खुशबु आती है जहाँ से ज़न्नत के ज़ाम की

 

बात ये राज़ की है तू किसी से न कहना...

खबर न हो जाये सब को यार के मकान की

~पवन राज सिंह

कलाम 13

 इश्क़ में दीवानों का ये हाल देखा है

बेगानों को होते हम-ख़याल देखा है


दीदार-ए-यार में मिलता है वो लुत्फ़

हँसते हुए हर एक परेशान देखा है


समझ न आ सके अंदाज फकीरी के

की सख्त दौर को भी आसान देखा है


साक़ी तेरे मयखाने में वो शराब नहीं

यार के हाथों में  वो ज़ाम देखा है


मस्तों के सर पे है जब हाथ यार का

ठीक होते हुए हर बीमार देखा है


राहे-इश्क़ के राज़ भी बड़े गहरे हैं

हर दिल में वो रोशन चराग़ देखा है

~पवन राज सिंह


कलाम 19

 दर्द-ए-इश्क़ दिल को दुखाता है बहुत विसाल-ए-यार अब याद आता है बहुत ज़ब्त से काम ले अ' रिंद-ए-खराब अब मयखाने में दौर-ए-ज़ाम आता है बहुत साक़ी...