संग दिल आशिक भी यहां पिघल जाते हैं
जब कभी वो अपने पर्दे से निकल आते हैं
आइना क्या समझेगा हुस्न के जल्वों को
तीर-ए-नज़र ज़िगर के पार उतर जाते हैं
घटायें काली जोश खाकर उमड़ आयी हों
जब कभी उनके बंधे गेसुं बिखर जाते हैं
फिर सोग में डूबके क़ेस सेहरां को निकला
लैला के अरमान मिलने को मचल जाते हैं
उसकी रहमत का दरवाजा खुला है हरदम
लोग इबादत की कतारो में नज़र आते हैं
हैं 'राज उस सनम कूचे के बहुत से निहाँ
यार से मिलने को आशिक़ पहुँच जाते हैं
~पवन राज सिंह
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