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सोमवार, 6 जुलाई 2020

मेरे जनाज़े के हमराह


बुतों ने होश सम्भाला जहां शऊर आया
बड़े दिमाग बड़े नाज़ से गरूर आया

उसे हया इधर आई उधर गरूर आया
मेरे जनाज़े के हमराह दूर दूर आया

जबां पे उनकी जो भुलेसे नामे-नूर आया
उठा के आईना देखा वहीं गरूर आया

तुम्हारी बज़्म तो ऐसी ही थी निशात-अफ़्ज़ा
रक़ीब ने भी अगर पी मुझे सरुर आया

अदू को देख के आँखों में अपने खून उतरा
वो समझे बादा-ए-गुलरंग का सरुर आया

कसम भी वो कभी कुरआन की नहीं खाते
ये रश्क है उन्हें क्यों इसमें जिक्रे-हूर आया

किसी ने ज़ुर्म किया मिल गई सजा मुझको
किसी से शिकवा हुआ मुझपे मुंह जरूर आया

वहीं से दाग सियह-बख्त को मिली जुल्मत
जहां से हजरते-मूसा के हाथ नूर आया

~दाग देहलवी

नज़र देख रहे हैं


सब लोग, जिधर वो हैं, उधर देख रहे हैं
हम देखने वालों की नज़र देख रहे हैं

कोई तो निकल आएगा सरबाज़े-मुहब्बत
दिल देख रहे हैं, वो जिगर देख रहे हैं

अब ए निगाहे-शौक़ न रह जाए तमन्ना
इस वक्त इधर से वो उधर देख रहे हैं

कब तक है तुम्हारा सुख़न-ए-तल्ख गवारा
इस ज़हर में कितना है असर देख रहे हैं

कुछ देख रहे हैं दिले-बिस्मिल का तड़पना
कुछ गौर से कातिल का हुनर देख रहे हैं

क्यों कुफ़्र है दीदारे-सनम, हजरते-वाइज़
अल्लाह दिखाता है बशर देख रहे हैं

पढ़-पढ़ के वो दम करते हैं कुछ हाथ पर अपने
हंस-हंस के मेरा ज़ख्मे-ज़िगर देख रहे हैं

मैं दाग हूँ मरता हूँ इधर देखिए मुझ को
मुंह फेर कर ये आप किधर देख रहे हैं

~दाग देहलवी

शनिवार, 4 जुलाई 2020

दाग कहां रहता है

दिल में रहता है जो आँखों में निहां रहता है
पूछते फिरते हैं वो ~दाग~ कहां रहता है

कौन सा चाहने वाला है तुम्हारा ममनून
सर तो रहता नहीं  एहसान कहां रहता है

वो कड़ी बात से लेते हैं जो चुटकी दिल में
पहरों उनके लबे-नाजुक पे निशां रहता है

मैं बुरा हूँ तो बुरा जान के मिलिए मुझसे
एब को एब समझिए तो कहां रहता है

खाना-ए-दिल में तकल्लुफ भी रहे थोडा सा
कि तेरा दाग तेरा दर्द यहां रहता है

लामकां तक की खबर हजरते वाइज ने कही
ये (यह) तो फरमाइए कि अल्लाह कहां रहता है

अपने कूचे में नई राह निकाल अपने लिए
कि यहां मजमा-ए-आफतजदगां रहता है

ज़ख्म आएं तो सभी ख़ुश्क हुआ करते हैं
~दाग~ मिटता ही नहीं इसका निशां रहता है

~दाग देहलवी

अगर इन्सां होता

मौत का मुझको न खटका शबे-हिज्राँ होता
मेरे दरवाजे पे अगर आपका दरबां होता

गर मेरे हाथ तेरी बज़्म का सामां होता
मेज़बां मैं कभी होता, कभी मेहमां होता

दीन-दुनिया के मज़े जब थे कि दो दिल होते
एक में कुफ़्र अगर, एक में इमां होता

दिल को आसूदा जो देखा तो उन्हें जिद आई
इससे बेहतर तो यही था कि परेशां होता

बेनियाज़ी जो हुई मेरी तमन्ना से हुई
मुझको अरमाँ जो न होता तुझे अरमाँ होता

क्या गज़ब है नहीं इन्सां को इन्सां की कद्र
हर फ़रिश्ते को ये हसरत है इन्सां होता

हो गई बारे-गरां बन्दा-नवाज़ी तेरी
तू न करता अगर एहसान तो एहसां होता

दाग को हमने मुहब्बत में बहुत समझाया
वो (वह) कहा मान लेता अगर इन्सां होता

~दाग देहलवी


मंगलवार, 30 जून 2020

कबीर दीवानगी या सीख


जिंदगी की सीख क्या है? हमें किन से अच्छी बातों को सीखना चाहिए? इन सवालों का जवाब हमें पुरानी किताबों से मिलता है किताबों में जिंदगी का जवाब होता है। मैंने
कुछ किताबें पढ़ीं और कुछ मस्तों दीवानों के साथ रहा, और फिर ये दीवानगी पाई। उन्हीं में इक दीवाना या समझ वाला जिसे कहते हैं वो है  कबीर, कबीर को कबीर उनके जीवन ने नहीं उनकी सिखाई या बताई सिखों (शिक्षाओं) ने बनाया आम आदमी को आम भाषा में समझाने का फ़न जैसे कबीर आता था या यूँ कहा जाए महारत हासिल कर रखी थी। एकलव्य जैसे तो विद्यार्थी समाज में बिरले ही पाये जाते हैं क्यों न कोई ऐसी तकनीक सोच ली जाय जिससे जो न सीखना चाहे उस तक या जो दूर देश में बैठा उस तक यह ज्ञान पहुँच जाये। यही हुआ आम शिक्षाओं के साथ गूढ़ से गूढ़ बातें कबीर ने हमें समझाई और आज भी उनका उपयोग कर जीवन में सफलता पा लेते हैं कहाँ धैर्य की आवश्यकता कहाँ शीघ्रता करनी है।
 साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।

अर्थ: इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है। जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।


तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।

अर्थ: कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है। यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है !


धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।

अर्थ: मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है। अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु  आने पर ही लगेगा !


माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।

अर्थ: कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या  फेरो।

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।

अर्थ: सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए। तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का।

दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।

अर्थ: यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह  दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत।

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।

अर्थ: जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते  हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।


बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।

अर्थ: यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।

अर्थ: न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।
संकलन
पवन राज सिंह

सोमवार, 30 मार्च 2020

उम्मीद बाकी है.....

मायूस हैं पर इक उम्मीद भी है
हैं उजाले कहीं गुम इस अँधेरे में

होकर रहेगी सुबह कुछ वक्त और
कुछ और वक्त का इन्तजार है

हमें और न सता सकेगा ये मंजर
हम उठ खड़े होंगे अपने पाँव पर

हमें उम्मीद है हमारे रहनुमा पर
हमें उम्मीद है हमारे तबीबों पर

ये रुत है खिज़ाँ की जाएगी जरूर
मौसम बहारों के फिर से आएंगे

खिलेंगे गुल बागों में फिर से.....
महकेगी चमन की हर इक गली

भँवरे फिर से गुनगुनाएँगे......
कोयल कूकेगी, पंछी फिर चहकेंगे

आज हारे हुए से हैं हम इससे....
कल इस अज़ाब से जीत जाएंगे

उम्मीद रखो उम्मीद पे ही यारों
उम्मीद पर ही दुनिया कायम है

होंसला कम न होने पाये अपना
कहीं कोई मायूस न होने पाये

मायूस हैं पर इक उम्मीद बाकी है
उम्मीद बाकी है
उम्मीद बाकी है.......जीत जाएंगे
~पवन राज सिंह

गुरुवार, 16 जनवरी 2020

बोरी कम्बल का किस्सा

बात उस जमाने की है जब अपनी रूह ने ख़ुद को ये समझाना शुरू किया था, की हम किस लिए इस दुनिया में आए हैं। नफ़्स का आधा हिस्सा जो पाक था वो इसे समझ चुका था और आधे हिस्से पर दुनिया और दुनियावी परेशानियां हावी थी। हालांकि दुनियावी नफ़्सानीयत नाम-लेवा ही थी। उस्ताद लोगों ने इस तरह का ज़ाम पिला दिया था की जिसके असर से आँखों के आगे का पर्दा उठ चूका था। आसपास का माहौल इतना दुनियावी था की जिसकी इन्तेहा नहीं है। ऐश आराम की जिंदगी दो चार चपरासी एक आवाज पर दौड़े आते, हद यहां तक थी की उठकर पानी तक नहीं पीने दिया जाता था। ये मकाम भी उस दुनियावी मेहनत का था जो एक आम आदमी पाना चाहता है, जिंदगी से जो कुछ हासिल करना था वह सब हासिल था। उसी दौर में एक सूफ़ी और दुनियावी जंग दिखावे जद्दो-जहद में ऐसा कुछ दिखाई दे जाना चोंका देने वाला लगता है। सिर्फ बोरी और कम्बल पर लालच करने वाले एक बुजुर्ग से मुलाक़ात हुई। दिखने में बिलकुल पतले दुबले और न कपड़े पहनने की सुध न ढंग से रहने की कोई तमन्ना ख्वाहिश। दुनियावी नजर का आदमी तो ऐसे शख्स से कोसोँ दूर से चला जाए, शरीयत के पाबन्द लोग भी इस गन्दगी में रहने वाले को तरजीह नहीं देते। हम उस जमाने में बाबा बुल्लेशाह की काफियां गाते जहां इक बार तो दो चार लोग इकट्ठा हो जाते और देखते सोचते यार ये भी सही आदमी है। उसी मस्तानगी में हमें वो बुजुर्ग कहीँ से भी बुरा न लगा रोज फिर आना जाना मिलना मिलाना रहता। लोग उस बुजुर्ग शख्स को बोरी-कम्बल ही कहते और कहते मेंटल भी है, पर हाँ जिस के लिए दुआ कर दे उसका काम हो जाता है। बाबा बड़े सयाने बुजुर्गों में रहे हुए थे वो जानते थे साफ़ सुथरा रहूँगा तो लोग पीछा नहीं छोड़ेंगे किस न किसी लालच में आते रहेंगे। बाबा बड़ी गन्दगी में रहते कोई आने की इच्छा नहीं करता और उनकी सिक्युरिटी में रहता कालू नाम का इक कुत्ता जो की किसी मुवक्किल से कम न था, बाबा की चप्पल लुंगी कम्बल बोरी कुछ न कुछ मुंह में लिए बाबा को देने जाता रहता। जब कभी बाबा खाना खाते तो उसी बरतन में उनका कुत्ता भी उनके साथ ही खा रहा होता। कभी बाबा उसका तकिया लगाये लेते मिलते या कभी वो बाबा के ऊपर सोया हुआ नजर आता, कहीं जाते तो दोनों साथ ही जाते कहीं से आते तो दोनों साथ ही आते।

बाबा से जब पहली मुलाक़ात करी तो कहा बोरी कम्बल दे। तो किसी जानकार के हाथों इक बोरी इक कम्बल और कुर्ता लुंगी बाबा के लिए मंगवाए और बाबा बड़े खुश हुए और खूब दुआएँ दी। फिर आना जाना लगा रहा जब मैं जाता उसी वक्त वो चाय का इन्तजार कर रहे होते या अपनी चाय से कुछ हिस्सा मेरे लिए भेजते।

वक्त गुजरता गया और कई बुजुर्गों से मुलाक़ात होती रही और इक दिन बाबा का विसाल हो गया फिर ये बात उनके कुत्ते पर बहुत भारी गुजरी अपने सर से किसी सरपरस्त का हाथ उठ जाना क्या होता है उस कुत्ते न इंसानों को ये सबक सिखाया उस दिन से सभी उस कुत्ते को खुश करने के लिए कुछ न कुछ लाते पर उसके आँख से पानी नहीं रुका और फिर इक रोज वो इक कुत्ते को लाया जिसका नाम हम लोगों ने भूरी  रक्खा और अपनी ड्यूटी उस नए कुत्ते को सौंपकर बाबा का कुत्ता गायब हो गया। सिर्फ दो महीने वो दिखा उस जगह जहाँ बाबा रहते थे।
ये किस्सा ऐसे तो बड़ा लम्बा है पर जितना जाहिर कर सकता था मैंने इसे लिखने की कोशीश की है।
~पवन राज सिंह

कलाम 19

 दर्द-ए-इश्क़ दिल को दुखाता है बहुत विसाल-ए-यार अब याद आता है बहुत ज़ब्त से काम ले अ' रिंद-ए-खराब अब मयखाने में दौर-ए-ज़ाम आता है बहुत साक़ी...